गीत : मत बाँधो दरिया का पानी
मत बाँधो दरिया का पानी
बहने दो अब लहर-लहर को ॥
किसे दिखाऊँ किसे बताऊँ
अंतर गहरे घाव बहुत हैं
रीत रहा घट यूँ साँसों का
जानूं कैसे दाँव बहुत हैं
मत साधो स्वर रुँधे कंठ मॆं
छूने दो बस अधर-अधर को ॥
भोर बुनी तो दिन हर्षाया
बुनी रात तो सपना पाया
चारों पहर फँसे गुदड़ी मॆं
चैन नहीँ इक पल को आया
कर्म -भाग्य का करते लेखा
कोस रहे क्यों पहर-पहर को ॥
जीत जीतकर जीत न पाये
जीवन की इस मैराथन को
कस्तूरी ले जेब भटकते
खूब सताया लोलुप मन को
नाता तोड़ो अंधकार से
खिलने दो नव सहर -सहर को ॥
— कल्पना मनोरमा
अच्छा गीत !
अच्छा गीत !