कविता

कुछ औरतें

कुछ औरतें आज भी 

नापती है चरित्र की गहराई 

घूँघट की लंबाई से…

वे कुछ औरते….

उन्होंने बना लिया है 

अपना दायरा

और समेट लिया है 

खुद को एक बिंदु के मद्द्य 

पर वे नहीं जानती

की इस बिंदु से वे

खिंच सकती है 

बहुत सारी रेखाएँ

अनगिनत रेखाएँ

वो संभाल सकतीं हैं

घूँघट के साथ ही लैपटॉप भी

और दे सकतीं है 

खुद को खुला आसमान..

हौसलों के पंख 

और कुछ करने की जिज्ञासा..

वे कुछ औरते

गुजारिश है उनसे

बढ़ाएं एक कदम 

परिवर्तन की ओर… 

वरना यूँ ही कहता रहेगा

पुरुष समाज

औरतें ही औरतों की दुश्मन है…

हमें उंगली नहीं दिखाना है 

हाथ मिलाना है…

रीना मौर्य "मुस्कान"

शिक्षिका मुंबई महाराष्ट्र ईमेल - [email protected] ब्लॉग - mauryareena.blogspot.com