छन्द जब आता नहीं
क्या लिखूँ कैसे लिखूँ , छन्द जब आता नहीं ।
भावना तूफान मन्मथ छन्द रस भाता नहीं ।
कल्पनाओं का समुंदर , मापनी जब ले गयी।
छन्द रोई रात में जब , पंक्ति निराला बन गयी ।
छन्दमुक्ता बन खिली वह , रात रानी बावरी ।
राज लिखने जब लगा मन, छा गयी विभावरी।
कवि ह्रदय में रात दिन का सूक्ष्म अंतर है सखे ।
गुल खिले गुलशन में कैसे , ताज कांटो का लिए ।
फिर वो मुस्का कहेगी प्यार में सज गुलबदन ।
कीच में खिल कर कमल भीं, नित संदेशा दे चमन।
तू सृजन करता फिरे जब , प्यार की इक डोर से ।
दूर बैठा देखता रब , चाँदनी की छोऱ से ।
व्यस्त होकर मस्त हूँ मे , व्यस्त हे कविवर सुनो ।
छन्दमुक्ता रागिनी बन , राज छाया बादलो
राजकिशोर मिश्र ‘राज’ प्रतापगढ़ी