आदत
आजकल के जमाने में चमचागीरी एक परंपरा सी बनती जा रही है,अशिक्षित लकीर के फकीर होते ही हैं, अगर बुद्धिमान भी उसी परंपरा का निर्वहन करने लगें तब आप क्या कहेंगे? अब हम आपका परिचय अपने कथानक की नायिका कलावती जी से करा रहा हूँ। कलावती जी हिन्दी, अँग्रेज़ी, संस्कृत जैसे साहित्यिक विषयों से परास्नातक हैं, सौभाग्य से एक विद्यालय की अध्यापिका हैं। अशिक्षित – शिक्षित सभी महिलाओं की मुखिया हैं। उनकी आवाज़ का जादू बरबस ही सब को भाव विभोर कर लेता है। संस्कृत के श्लोक, बीच-बीच में अँग्रेज़ी के शब्द उनकी विद्वता को महिमा मंडित करते रहते हैं। उनको अपनी प्रशंसा सुनना बहुत ही पसंद है, अगर किसी ने उनकी बुराई कर दी मानो कयामत आ जाएगी। चाँद तारों को सर पे उठा लेंगी, उनकी मृदुभाषिता कैकशा (झगड़ा करने की प्रवृति) में तब्दील हो जाती है।
विद्वता के साथ उग्रता का कैसा सामंजस्य? विद्वान सुख दुख को सम भाव में अपने जीवन में ढ़ालते हैं। अलंकार एवम् रस के आधीन नहीं होते हैं। न्याय की परंपरा को बखूबी जानते हैं, जैसा हम अपने लिए चाहते हैं वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ करना ही न्याय है। फिर इंसान दूसरों का तिरस्कार क्यों करता है? क्या ये मानवीय संवेदनों का व्युत्क्रम है या दंभ की पराकाष्ठा? शिक्षा का वास्तविक अर्थ क्या है? एम.ए., पीएच.डी. करने से विषय विशेषज्ञ बन सकते हैं। यह सैद्धान्तिक पक्ष है, उसे व्यवहार मे कैसे परिणित करना है यह उस व्यक्ति के आचार -विचार आहार-विहार, वातावरण वंशानुक्रम पर निर्भर करता है। कभी -कभी ज्ञान होते हुए भी इंसान अज्ञानियों की भाँति परिभ्रमण करता रहता है। कभी- कभी ज्ञान अहम के यज्ञ का आभूषण बन जाता है। विवेक शून्य हो जाता है। आख़िर ऐसे ज्ञान का क्या औचित्य जहाँ दंभ के दरवाजे पर विवेक दरवान बन जाय।
— राजकिशोर मिश्र ‘राज’