लघुकथा

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मंडप के बेदी पर माता पिता , बेटी का हाथ होने वाले दामाद के हाथों में थमा कन्यादान करने वाले ही थे कि छोटा बेटा मुन्ना तूफान ला दिया कि कन्यादान की रस्म होने नहीं देगा ।
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“मेरी दीदी वस्तु नहीं जो दान कर दी जाये । दो इंसानों की शादी हो रही है तो दीदी की ही दान क्यों की जाए ? बारात हमारे घर दान लेने आई है या दहेज से खुद को बेचने आई है तो वर का दान, वर के माता पिता क्यों नहीं कर रहे हैं ?”।

सारा समाज हदप्रद रह गया । रिश्तेदारों में कानाफुंसी शुरू हो गई कि आज कोई नई चीज थोड़े न हो रही है , ये तो सदियों से होती आ रही रस्म है । दो चार उम्र में बड़े लोग ,कन्यादान का विरोध कर रहे बेटे को समझाने में लग गए क्यों कि विवाह विधि रुकी हुई थी और मुहूर्त बीता जा रहा था । परन्तु दीदी का लाड़ला भाई पगलाये हाथी की तरह आक्रोश में विरोध पर अड़ा रहा । उसके अड़ियल व्यवहार को देखते हुए वर ने वादा किया कि “आपकी दीदी का दान नहीं होगा । इस रस्म का मैं भी विरोध करते हुए आपके साथ हूँ ।
मिथिला में कन्यादान के रस्मों में तिल का प्रयोग नहीं होता है , जिससे लड़की का सम्बन्ध पूरी तरह माता पिता से खत्म नहीं होता है । बेटियां माता पिता के सुख दुःख की सहयोगी होती ही हैं , उनके मरणोपरांत उनके श्राद्ध भी तीन दिन का करती हैं । बेटी है या बहू ,ये भी पता चल जाता है कि “तीन में है कि तेरह में ।”
इस विधा को समझते हुए मुन्ना का क्रोध थोड़ा शांत हुआ और शादी शांतिपूर्वक संपन्न हुई | साथ ही मुन्ना कहावत भी समझ गया …. “ना तीन में ना तेरह में” …..

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ