ग़ज़ल : देखी थी
कभी अपने पुरखों के पास पडी “देखी थी” ,
वक्त को वक्त बताती मैने वो घडी “देखी थी” !
टुट गई है कबसे, बिखरे पडे हैं मोती जिसके,
अरसा पहले जुडी हुई, मैने वो लडी “देखी थी” !
दीमक लगी है जिनमे, है मिटने की कगार पर,
सदियों तलक वो मीनारें, जो हीरों से जडी “देखी थी” !
सच्चाई और ईमानदारी, शायद दो सगी बहनें हैं,
बिलखती बापु के पास आज, मैने वो खडी “देखी थी” !
कहां गया जोशे,जुनुं वो, कहां है वो जवानियां,
आजादी के वास्ते जो वतन पर, मिटने को अडी “देखी थी” !
कहतें हैं मुझसे यार मेरे सब, मगर में मानता नहीं,
छोटा है ‘जय’ पर तुझमे, कुछ बात बडी “देखी थी” !
— जय कृष्ण चांडक
हरदा (म. प्र.)