परवाह और जरूरत
“माँ आज तुम खिचड़ी बना कर खा लेना, मैं और रश्मि फिल्म देखने जा रहे है। खाना बाहर ही खाएँगे ।” राजेश के ये शब्द सुनकर सुजाता की आँखे नम हो गई । अपने मुँह से कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाई । बड़ी मुश्किल से अपने आंसू रोकते हुए सुजाता ने अपना सिर हिलाकर हां किया । राजेश और रश्मि बाहर चले गए ।
पूरे घर में सन्नाटा पसरा है । सुजाता अकेले बैठी-बैठी यादों में खो जाती है । अब इन यादो के अलावा उसकी जिन्दगी में बचा ही क्या है? राजेश के पिता की मौत के बाद सुजाता एकदम अकेली हो गई । एक पोता है वह भी हाॅस्टल में रहता है । घर में उसके मन की बात सुनने वाला कोई नहीं है । सुजाता को राजेश के बचपन की बाते याद आती है ।
“कभी सपने में भी नहीं सोचा कि बड़ा होकर मेरा बेटा इतना बदल जाएगा ।” सच है ! हकीकत को आँखो के सामने बदलते देखते है तो यकीन ही नहीं होता है ।
वह राजेश के पिता की तस्वीर से बाते करके अपना जी बहलाने लगती है । “आपको याद है बचपन में राजेश मेरे बिना एक दिन भी नहीं रह सकता था ।
एकबार पिताजी बीमार हो गए थे । राजेश स्कूल गया हुआ था और मैं उसे यही छोड़कर मायके चली गई थी । जब वो घर आया और मैं नहीं मिली तो कितना रोया ! और खूब समझाने पर भी चुप नहीं हुआ था, तब आपको तुरन्त उसे मेरे पास लाना पड़ा था ।और आज वहीं राजेश मुझे घर में देखकर भी अनदेखा कर देता है ।
मै कभी बीमार पड़ जाती तो कैसे मेरे आगे पीछे घुमता था ! अपने हाथों से मुझे खाना खिलाता था । घर के मंदिर में बैठकर प्रार्थना करता कि “भगवान जी मेरी माँ को जल्दी ठीक कर दो, मैं कभी उन्हें परेशान नहीं करूंगा ।” अब तो जैसे मेरे जीने मरने से उसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता ।
फिर खुद ही अपने आप को तसल्ली देती है कि- वह भी क्या करें फुर्सत ही कहां है उसे, जो मुझसे बात करेगा । दिन-भर तो ऑफिस में रहता है ।थका-हारा घर आता है । और मेरे पास आकर बैठेगा तो आराम कब करेगा बेचारा । फिर मन में विचार आता है “समय” समय तो बस मेरे लिए नही है । छुट्टी वाले दिन भी कभी दस मिनट भी मेरे पास बैठकर मेरे मन का हाल जानने की कोशिश नहीं की उसने । सुजाता के मन में विचारो का युद्ध छिड़ गया ।सुजाता का मन जोर-जोर से चीख कर कह रहा था । सुजाता ! सच बहुत कड़वा होता है, किन्तु सच यहीं है “इस दूनियां में बिना स्वार्थ के कोई किसी की परवाह नहीं करता । जिसकी जितनी ज्यादा जरूरत होती है, इंसान उसकी उतनी ही ज्यादा परवाह करता है।” राजेश को कभी तेरी परवाह थी ही नहीं। उसे बस तेरी जरूरत थी, जिसे तू परवाह समझ बैठी । अब तेरी जरूरत खतम हो गई है, तो परवाह भी खतम । कमरे का सूनापन सुजाता को खाने लगा । उसकी आँखो से आँसूओ की बाढ आ गई । वह फिर तस्वीर की ओर देखते हुए कहती है, “आप किसके भरोसे मुझे यहाँ अकेले छोड़कर चले गए? मुझे भी अपने पास बुला लो ।” यहाँ ना तो किसी को मेरी परवाह है ना ही मेरी जरूरत ।
आधी रात हो गई सुजाता को समय का पता ही नहीं चला और उसने ने अब तक कुछ नहीं खाया । तभी बेल बजती है । वह जल्दी जल्दी अपनी साड़ी के पल्लू से आँसू पूछती है,और दरवाजा खोलती है । राजेश और रश्मि अन्दर आते है, और उस पर ध्यान दिए बिना चुपचाप अपने कमरे में चले जाते है । सुजाता भी सन्नाटे भरे अंधेरे कमरे में मन मसोसकर सो जाती है ।