गीतिका/ग़ज़ल

रदीफ़ “करते हो” पर ग़ज़ल

कोई क्यों तुम , एहसान करते हो …..
बड़ी मुश्किल में जान करते हो …..

ख़ौफ़ से उस ख़ुदा के भी तो डरो …..
मिला सभी कुछ , अभिमान करते हो …..

साथ ले जाओगे क्या ये धन – दौलत …..
क्यों नहीं कुछ तुम , दान करते हो …..

चंद रुपये कमाने के लालच में …..
क्यों भ्रष्ट अपना ईमान करते हो …..

पूछती हूँ मैं आज इस ज़माने से …..
क्यों बेईमानी का सम्मान करते हो …..

आते हो कुछ घड़ी के लिए लेकिन …..
रुख़सत होने का बस गान करते हो …..

सर झुकाकर यूँ हर कहीं अपना …..
दर्दे – दिल का क्यों अपमान करते हो …..

जिसको चाहो, उसे दिल से प्यार करिएगा …..
मुहब्बत को बेवजह बदनाम करते हो …..

कैसी चाहत है ये , तुम्हारी भी …..
खुदी के ही दिल को मेहमान करते हो …..

वो चाहे या कि न चाहे , लेकिन …..
खुद ही तुम छिड़का जान करते हो …..

बात करके यूँ तुम भूल जाने की …..
मेरी और अपनी कहानी जुदा करते हो …..

ठोकरें खाकर तो सम्भल नहीं पाते …..
और तुर्रा यह कि मुझ पर कमान करते हो …..

मैं परेशां हूँ , तुम्हारी इस आदत से …..
ज़रा – सी बात पर खड़ा तूफ़ान करते हो …..

आग लगाकर दिलों में नफ़रत की …..
मौत का इकट्ठा यूँ सामान करते हो …..

वक्त पर ख़ामोश बनी रह कर यूँ …..
क्यों नहीं ‘ रश्मि ‘ आला ज़बान करते हो …..

— रवि रश्मि ‘अनुभूति’