संस्मरण

मेरी कहानी 188

दूसरे दिन सुबह को हम जल्दी तैयार हो गए क्योंकिं हम ने हम्पी देखने जाना था। होटल की कैंटीन से ही ब्रेकफास्ट लिया और ड्राइवर का इंतज़ार करने लगे। कोई आधे घन्टे बाद ड्राइवर होटल के बाहर गाड़ी खड़ी करके हमें लेने आ गया। उठ के हम उस के साथ हो लिए और जब होटल के बाहर आये तो ड्राइवर ने गाड़ी की ओर इछारा किया। देख कर गाड़ी पसंद आ गई क्योंकि यह सूमों थी और नई जैसी लग रही थी। गाड़ी में सवार हो गए और सब मज़े से बैठ गए। रास्ते का सफर अब आसान होगा, हम समझ गए थे। गोवा से काफी दूर आ कर पहाड़ी रास्ता शुरू हो गया। कभी ऊपर को चढ़ाई आ जाती, कभी नीचे की ओर जाने लगते। कभी शार्प बैंड आ जाता और एक दम ड्राइवर हॉर्न बजाता और आगे से भी हॉर्न की आवाज़ आती। सड़क के एक तरफ ऊंची पहाड़ी होती और दुसरी तरफ गहरी वादीआं होतीं। एक बात है कि सड़क बहुत अछि थी, कहीं से भी टूटी हुई दिखाई नहीं दी। ऐसे पहाडियों के सीन तो पहले भी मैंने देखे हुए थे लेकिन गोवा की पहाड़ीयां बहुत अछि लगीं। कई जगह नज़ारा बहुत सुन्दर लगता, जब हम कोई बैंड ख़तम करके आगे जाते, तो जिस सड़क को पार करके हम अभी अभी ही आये होते वोह सड़क एक तरफ हमारे नीचे दिखाई देती। ऐसे तीन तीन सड़कें भी एक तरफ दिखाई देतीं, जिन पर सफर करके हम अभी अभी आये होते। यह सड़क काफी बिज़ी थी और दुसरी तरफ से ट्रक बहुत आ रहे थे। जब भी बैंड आता हार्न शुरू हो जाते और बहुत दफा जब बैंड पार करते एक दम कोई ट्रक आ जाता तो डर भी लगने लगता। मैं कभी कभी कैमकॉर्डर से फिल्म भी ले लेता।
यह पहाड़ी सफर ख़तम होते ही सड़क समतल हो गई। अब हम बातें करते करते जोक सुनाने लगे थे। इस से सफर आसान हो रहा था। सड़क के दोनों ओर खेत ही खेत दिखाई दे रहे थे जिन में ज़्यादा मिर्चों के खेत ही थे। लगता था यहां की ज़मीन बहुत उपजाऊ थी क्योंकि हर तरफ हरियाली ही हरियाली दीख रही थी। बीच बीच किसानों के खेतों में लाल लाल मिर्चों के बड़े बड़े ढेर लगे हुए दिखाई दे रहे थे, किसान और उन की स्त्रीयां कोई काम कर रहे थे। इतने ऊंचे मिर्चों के ढेर भी ज़िन्दगी में पहली दफा हम ने देखे। कोई सौ मील चल के एक जगह हम खड़े हो गए, सभी को पिछाब भी करना था, इस लिए इधर उधर सब खेतों में चले गए। सड़क के दुसरी ओर बड़े बड़े मिर्चों के ढेर लगे हुए थे। गियानों बहन को यह बड़ी बड़ी मिर्चें अछि लगी। क्योंकि उस को अपने गार्डन में कुछ न कुछ बीजने का बहुत शौक है, कहने लगी कि इन मिर्चों के बीज ले लेने चाहियें और वापस इंग्लैंड जा के इन को बीज कर देखेगी। किसान की स्त्री ने बहुत सी मिर्चें दे दीं। ग्यानों बहन ने पैसे देने चाहे लेकिन उस ने लिए नहीं। किसान गरीब होते हुए भी फराख दिल होता है, इस का मुझे पहले ही पता था क्योंकि किसान के खेत में कभी भी कोई जाए, वोह जो भी खेत में हो, देने की कोशिश करेगा। गन्ने का खेत हो, तो वोह जरूर कहेगा, ” गन्ना ले लो जी ! मूली ले लो जी ! “, कुछ भी हो, गुड़ बनाता हो तो गुड़ खिलाने की कोशिश करेगा। इस मेहमान निवाज़ी की कोई कीमत नहीं लगा सकता, यह हमारी सभ्यता की देंन है।
अब हम आगे चल पड़े। सफर लंबा, कोई आठ घंटे का था। सड़क, कहीं कहीं पे टूटी हुई थी और लगातार झटके लगते रहते थे लेकिन सड़क समतल ही थी। कुछ दूर जा के कोई बस अड्डा आया। शायद यह कोई छोटा सा शहर होगा। फ्रूट रेहड़ी वालों की दुकानें आम लग्गी हुई थीं। एक छोटे से ढाबे पर हम ने चाय पी और साथ में कुछ नमकीन खाया। ज़्यादा देर यहां ठहरे नहीं और आगे चल पड़े। मौसम बहुत अच्छा था, पचीस तीस डिग्री के करीब होगा और धुप अछि लग रही थी। यह सड़क जीटी रोड की तरह सीधी ही थी। कहीं पे भी हमें किसी और सड़क पर जाना नहीं पड़ा और सब से अछि बात थी, दोनों तरफ लहलहाती हुई फसलों का होना, जो बहुत ही मन लुभावनी परतीत हो रही थीं। शायद दो सौ किलोमीटर आ गए थे और अब कोई बड़ा शहर आ गया जिस में ट्रैफिक बहुत ज़्यादा थी। यहां हम ने खाना खाने का मन बना लिया। ड्राइवर ने एक जगह गाड़ी खड़ी कर दी, यह पार्किंग के लिए ही जगह होगी क्योंकि बीस पचीस गाड़ीआं पहले भी खड़ी थीं। एक अच्छा होटल हमें दिखाई दिया। यहां के खाने पंजाब के खानों से कुछ हट कर थे लेकिन हम ने पूरिआं खाना ही पसंद किया। ड्राइवर को सिर्फ इडली ही पसंद थी, इस लिए उस ने इडली के साथ चावल ले लिए। दालों सब्ज़िओं के साथ कुछ चटनियाँ और गर्म गर्म फूली हुई पूरियां मज़ेदार लग रही थी। खाना खा कर एक एक कप्प काफी का ले लिया और बातें करने लगे। कोई आधा घंटा आराम करके सफर फिर शुरू हो गया। सफर लंबा होने के बावजूद इतना महसूस नहीं किया। हमारा पड़ाव hospit था। यहां होटल बहुत हैं और बड़ीआ बढ़िया हैं। जब हम हौस्पीट पहुंचे तो शाम हो गई थी लेकिन अभी लौ थी। एक होटल के पास आ कर हम रुक गए। ड्राइवर ने गाड़ी होटल के बाहर खड़ी कर दी और मैं और जसवंत होटल के रिसेप्शन में चले गए। कुछ गोरे बुककिंग के लिए पहले ही खड़े थे। फर्स्ट क्लास राहायश की हमें कोई जरूरत थी नहीं, इस लिए तीन कमरे हम ने बुक्क करा लिए, एक में कुलवंत और गियानो बहन, दूसरे में तरसेम और उस की पत्नी और तीसरे में मैं जसवंत और ड्राइवर ने सोना था। दो रातों के लिए कमरे बुक हो गए। होटल काफी बड़ा था। चाबियां ले कर कमरों में सामान रखा और फैसला किया कि पहले नहा धो लें। हर कमरे में टॉयलेट और बाथ रूम थे। साधाहरण कमरे होते हुए भी बहुत अच्छे थे। जब नहा कर हम सभी बाहर आये तो अँधेरा हो चुक्का था। डाइनिंग एरिया रहाइशी एरिये से इलाग्ग था, जो ऊपर खुल्ले में था और यहां से नीचे सड़क पर आवाजाई दिखाई दे रही थी। कुछ गोरे गोरीआं बैठे थे और कुछ इंडियन, जिन में सिंह भी थे और कुछ लोग बीअर ले कर बैठे गप्पें मार रहे थे। हम ने भी अपने लिए ड्रिंक ऑर्डर कर दिए और बातें करने लगे। ड्राइवर ने इडली चावल और दाल बगैरा का आर्डर दिया और हमारा सब का खाना भी इलग्ग इलग्ग ही था। गियानो बहन और सुरजीत कौर का खाना शाकाहारी था लेकिन हमारा सब का नॉन वेजिटेरिअन था। मैं और जसवंत ने वेटर को कहा कि हमारे लिए मीट में मिर्च ज़्यादा और करारी डाले। टेबल काफी बड़ा था और सभी इस के गिर्द बैठे थे। कुछ ही देर में टेबल खानों से भर गया। इस खाने में कोई ख़ास बात तो नहीं थी, आम खानों की तरह ही थे लेकिन जो बात हम को कभी नहीं भूलेगी, वोह थी मीट में मिर्च। हम ने वेटर को कहा था कि हमारे लिए मिर्च करारी रखे लेकिन जब हम ने खाना शुरू किया तो मिर्च इतनी करारी थी कि ज़िन्दगी में कभी इतनी खाई ही नहीं। मीट तो स्वाद था लेकिन मिर्च इतनी थी कि हम सी सी कर रहे थे। हम ने वेटर को बुलाया और कहा कि यह तो ऐसे लग रहा था जैसे मिर्च की कड़शी भर के हमारी प्लेटों में ही डाल दी गई थी। वेटर, सौरी सौरी बोल रहा था और उस के चेहरे पर चिंता के लक्षण दिखाई दे रहे थे। हम ने उसे जल्दी से आइस क्रीम की प्लेटें लाने को कहा। खाना तो खा लिया था मगर मिर्च ने हम को नानी याद करा दी। आइस क्रीम सभी ने खाई और हम को कुछ चैन आई। पैसे दे कर हम बाहर आ गए और सड़क पर घूमने लगे। हवा में मच्छर बहुत था लेकिन हम भी इन से मुकाबला करने के लिए पूरा इंतज़ाम कर लिया था और हर रोज़ मलेरिया की गोलियां ले रहे थे।
काफी देर घूमने के बाद हम वापस होटल में आ कर अपने अपने कमरों में सो गए क्योंकि सुबह जल्दी उठना था और हंपी देखने जाना था। सुबह उठे और नहा धो कर तैयार हो गए और सीधे ब्रेकफास्ट के लिए चले गए। ब्रेकफास्ट एक और जगह था। इस में हम ने इंडियन ब्रेकफास्ट पराठे दही और कुछ चटनियाँ लीं। मज़ा आ गया खा के। अपने बैग ले के हम नीचे आ गए। जब हम गाड़ी में बैठने लगे तो छोटे छोटे बच्चे हाथों में छोटे छोटे फूलों की मालाएं लिए हुए हमारी गाड़ी की तरफ आ गए। दो बच्चे जो भाई बहन ही लगते थे, होंगे कोई दस बारह साल की उम्र के, उन्होंने दो हार गाड़ी के आगे दोनों वाइपरों पर डाल दिए। इतनी सुबह इन बच्चों को देख कर तरस आ गया और कुलवंत ने उन को पचास रूपए दे दिए। दोनों बच्चे खुश हो गए, शायद उन की उम्मीद से ज़्यादा पैसे उन को मिल गए थे। थोह्ड़ी थोह्ड़ी ठंड थी और कुछ कुछ धुंद भी थी। ड्राइवर ने शीशे साफ़ किये। गाड़ी में बैठ कर हंपी की ओर जाने लगे। सड़क इतनी बुरी नहीं थी। रास्ते में कहीं कहीं पुराने खंडर भी दीख रहे थे लेकिन हमें कुछ नहीं पता था कि यह किया थे । यह सड़क कितनी लंबी होगी, यह तो याद नहीं लेकिन अंदाज़े के मुताबिक होगी कोई पंदरां बीस मील।
जब हैंपी के नज़दीक पहुँचने लगे तो ऊंचे ऊंचे पत्थर दिखाई देने लगे। जब बिलकुल ही नज़दीक पहुँच गए तो सड़क पर एक, दो पत्थरों का दुआर दिखाई दिया। दो बड़े बड़े पत्थर दोनों तरफ ऊपर से एक दूसरे के साथ मिले हुए थे। इतने भारी पत्थर कैसे जोड़े गए होंगे, यह हैरानी की बात थी। यह दो पत्थरों के पुल के नीचे ही यह सड़क जा रही थी। हम यहां खड़े हो गए और गौर से इसे देखने लगे, क्योंकि यह कारागरी का नमूना था और यह इंटरनेट पे भी देखा जा सकता है, बल्कि सारे हंपी के खंडर इंटरनेट पे देखे जा सकते हैं। जब हम खंडरों के नज़दीक पहुंचे तो वहाँ बहुत से गाइड खड़े थे और कुछ लोग हंपी की किताबें बेच रहे थे। एक गाइड से हम ने बात की और उस ने पांच सौ रूपए में सब कुछ दिखाने का वादा किया। मैंने हंपी के इतिहास की एक किताब खरीद ली जिस को पढ़ के मुझे बहुत कुछ पता चला जो आज तक याद है। गाइड ने हमें बताया कि हमें शॉर्ट कट्ट रास्ते से जाना चाहिए, है तो थोह्ड़ा मुश्किल लेकिन इस से हमें बहुत कुछ देखने को मिलेगा। हम पत्थरों के एक टीले पर चढ़ने लगे। ड्राइवर ने तरसेम का हाथ पकड़ा हुआ था। इन पत्थरों से साफ़ दिखाई देता था कि बहुत सी इमारतों और मंदिरों को गिराया गया होगा क्योंकि पत्थरों की शक्ल से ही ज़ाहर हो रहा था। कोई पंदरां मिंट ऊपर चढ़ने को लग गए। जब टीसी पर पहुंचे तो देखा खंडर हुए मंदिरों को। यह मंदिर जब अपनी सुंदरता में होंगे,कैसे होंगे, इस को इतिहास का विदयार्थी ही समझ सकता है। हमारा गाइड साथ साथ बता रहा था कि यह विजय नगर था जो उस समय हिन्दू राजाओं की राजधानी होती थी।
हर जगह पत्थर ही पत्थर थे और साफ़ दिखाई देता था कि तबाह हुआ शहर था। कुछ दूरी पर एक छोटा सा मंदिर था जिन की ओर जाना तरसेम के लिए असम्भब था। तरसेम बैठ गया और हम उस मंदिर की ओर चल पड़े। ऊपर नीचे टूटे हुए पत्थरों पर चलते हुए हम मंदिर तक पहुँच गए। मंदिर तो इतना बड़ा नहीं था, हो सकता है उस ज़माने में बहुत बड़ा हो लेकिन देख कर साफ़ ज़ाहर होता था कि इन में सभी मूर्तियों को तोडा गया था क्योंकि किसी मूर्ति का मुंह पूरा दिखाई नहीं देता था और किसी का कोई दूसरा अंग तोडा गया था। इन खंडरों की इतिहासक जानकारी मैं और जसवंत ही समझ सकते थे और कुलवंत को मैं समझ रहा था। कुलवंत को इतिहास की जानकारी हो या ना हो लेकिन उस को इन पुरानी चीज़ों को देखने का शौक उतना ही है जितना मुझ को। इस मंदिर को देख कर बाहर आये तो एक गोरा पता नहीं किस देश का होगा खड़ा एक बहुत ही बड़े कैमरे से फोटो ले रहा था और साथ साथ एक नोट बुक पर कुछ लिख रहा था। अब हम पत्थरों के बीच चलते हुए एक और बहुत छोटे से मंदिर में पहुंचे जो शायद किसी बड़े मंदिर का एक हिस्सा ही होगा। इन पर छोटी छोटी मूर्तियां बनाई हुई थीं जो टूटे होने के बावजूद उस समय की कला दर्शा रही थी। अब हम नीचे की ओर जाने लगे, हमारे सामने अब बहुत बड़ा और ऊंचा मंदिर दिखाई दे रहा था। मंदिर में जाने से पहले हम दुकानों की ओर जाने लगे। टॉयलेट के बारे में किसी से पुछा तो पता चला कि नज़दीक ही थीं। टॉयलेट्स साफ़ सुथरी थीं। बाहर आ कर पहले हम ने एक दूकान से चाय समोसे खाये और मंदिर में दाखल हो गए। गाइड ने बताया तो बहुत कुछ था लेकिन यह ही याद रहा है कि इस मंदिर को वीरूपक्ष मंदिर बोलते हैं और यह मंदिर विजय नगर बनने से आठ सौ साल पहले भी मौजूद था जो पहले छोटा सा मंदिर था लेकिन विजय नगर के हुक्मरानों ने इस को बहुत बड़ा बना दिया था। यह मंदिर बिलकुल सही हालत में इस लिए बच गया था कि इस मंदिर में मुसलमानों के पवित्र नाम अल्ला का नाम एक दीवार पर खुदा हुआ था। गाइड ने वोह निशान अल्ला हमें दिखाया। यह हिन्दू राजे बहुत फराख दिल थे और सब धर्मों की कदर करते थे। जैन मंदिर भी बहुत बनाये गए थे। सब धर्मों के लोगों को हर तरह की आज़ादी थी। फ़ौज में मुसलमान सिपाही भी थे और हिन्दू जैनी तो थे ही। हमलावरों ने इसी लिए यह मंदिर नहीं तोडा कि इस में अल्ला का नाम था।
आगे गए तो आर्ट ऐसा दिखाई दे रहा था कि इस को लफ़्ज़ों में बताया नहीं जा सकता। उस ने बताया कि यहां चौविस घंटे वेद मन्त्रों का उच्चारण होता रहता था और आज भी यह परंपरा कायम है। एक बात याद आई, गाइड ने यह भी बताया था कि इस मंदिर को पम्पापति मंदिर भी बोलते हैं। फिर उस ने एक कहानी भी सुनाई थी कि पंपा विशनूं भगवान् की बेटी थी जिस का विवाह शिव जी से हो गया था जिस को पारवती कहते हैं। मुझे नहीं पता कि यह बात सही है या गलत, मैंने तो जो उस गाइड ने बताया था, लिख दिया है। इस मंदिर में प्रवेश करने पर ही एक हाथी खड़ा होता है, जो लोगों को आशीर्वाद देता है। उस का मालक पास खड़ा होता है। जब कोई इस हाथी को कोई नोट दिखाता है, तो हाथी अपनी सूंड से नोट पकड़ कर अपने मालक को दे देता है और नोट देने वाले के सर पर अपनी सूंड रख कर आशीर्वाद दे देता है। हम ने भी बीस बीस रूपए दे कर आशीर्वाद लिया और फोटो खिंचवाई। हमारा मकसद सिर्फ हाथी के कर्तव्य पर ही सीमत था। यहां बंदर भी बहुत थे और गाइड ने हमें अपना सामान संभाल कर रखने को बोल दिया था। चलता. . . . . . . . .