न वो बदले हैं , न हम बदले है …!!
न वो बदले हैं , न हम बदले है ,
बस हमारे बीच अब बदले हैं।
सच की दहलीज़ पर यूँ बैठे हैं ,
कि मानो हकीकत में कई परदे हैं।
नाउम्मीदगी का कोई निशां नहीं ,
फिर भी निराशा की जंजीरों में हम जकड़े हैं।
गुलामी का सबब याद है,
फिर क्यों खुद से हम खुद जकड़े हैं।
अब कौन आकर जगायेगा ,
भगत ,आज़ाद या सुभाष की तरह,
जिनकी नींद पर बेख़ौफी के ताले हैं।
रवि शुक्ल ‘प्रहृष्ट’