गज़ल
जिसकी हुकूमत थी कभी आसमानों तक
वो इश्क है महदूद जिस्मों की दुकानों तक
चर्चे हैं बहुत जिसके वो बयार तरक्की की
देखें कब आती है गरीबी के ठिकानों तक
वो आयें भी तो कैसे, कोई राह नहीं मिलती
उस पक्की हवेली से इन कच्चे मकानों तक
कहते हैं कि आती है इमदाद बहुत लेकिन
बस पहुंच नहीं पाती हम आम इंसानों तक
ताले हैं ज़ुबानों पर हिम्मत भी नहीं बाकी
कैसे पहुंचे आवाज़ उन बहरे कानों तक
तुम मरो भूख से वो तो बिरयानी खाएंगे
हाकिम को रंज तो है पर बस बयानों तक
आवाम के सब्र का बांध बस टूटने वाला है
गुस्सा आ पहुंचा है खतरे के निशानों तक
— भरत मल्होत्रा