ठूंठ
इक ठूंठ देखता मैं प्रतिदिन
पाकघर के झरोखे से।
खड़ा-खड़ा मैं सोचा करता,
जीवन के हर कोने से।।
टीन का डिब्बा बगल पड़ा,
खाली प्लास्टिक बोतल संग में।
इनकी कीमत कभी बहुत थी,
आज लिए हैं मिट्टी मुंह में।।
ठूंठ कभी छाया देता था,
फल देता था मधुर मधुर।
सूखे तन को दीमक खाते,
खाए थे फल मधुर मधुर।।
ठूंठ अभी यह मरा नहीं,
तन सूखा है पर काठ नहीं।
जीवन जड़ में जिंदा है,
हमको इसकी फिकर नहीं।।
जंग लग गया डिब्बे में,
खाली होते ही फेका था।
मतलब अपना साध लिया,
तब सही सलामत फेंका था।।
बोतल अभी सलामत है,
दिन आगे बड़ा भयानक है।
धूप से इसको जलना है,
आह तनिक ना भरना है।।
फिर बारिश की बूँदें छनके गी,
जले हुए तन पर टपके गी।
झाडी उगेगी अगल बगल में,
सडी गली बदबू चिपकेगी।।
Continue………. ✍?✍?✍?
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।। जय माता दी।।
प्रदीप कुमार तिवारी
करौंदी कला, सुलतानपुर
7537807761