लेख- शिक्षक का बाजारीकरण
पहले शिक्षक या गुरु का पद बहुत ऊँचा व सम्माननीय होता था । गुरु भी बहुत ज्ञानी और मर्यादित होते थे । क्योंकि वह बनाये नहीं जाते थे बल्कि जन्मजात होते थे । जिनके जीवन का उद्देश्य बच्चों के माध्यम से एक स्वस्थ समाज का निर्माण करना होता था ।
पर आज हर गली- मोहल्ले में स्कूल खुल रहे हैं। मेरे छोटे से जिले में सभी प्रकार के बोर्ड और माध्यमों को मिलाकर लग तीस स्कूल हैं । स्कूलों की बाढ़ सी आ गई है । उस पर प्ले हाउस या किड्स हाउस का तो कहना ही क्या है । जिसके पास अगर दो कमरों का मकान है तो वह आराम से एक कमरे में प्ले हाउस खोल सकता है।
तो भाई स्कूल और प्ले हाउस तो खुल गए । अब शिक्षक की बारी आती है।
शिक्षक तो आज हर गली मोहल्ले के बाजार में बिक रहे हैं। ख्वाब तो बड़े ऊँचे ऊँचे देखे थे बहुत कुछ बनने के । जब नहीं बन पाए तो कोई बात नहीं । शिक्षक का पेशा तो सबके लिए खुला है। चलो टीचर बन जाते हैं। जिनके लिए बड़ा पुराना और प्रसिद्ध स्लोगन है -टीचर फटीचर । लेकिन उपाय क्या है खाली बैठने से तो अच्छा है टीचर बनना । अब इतना तो आप समझ ही गए होंगे कि यह मजबूरी वाले शिक्षक कितनी रूचि से शिक्षार्थियों को शिक्षा परोसेगें और देश का भविष्य कैसा बनाएगें ।
अब जब इतने अधिक मात्रा में स्कूल और प्ले हाउस होगें और टीचर उनसे भी चार गुना अधिक मात्रा में होगें तो स्कूलों की मनमानी होना तो स्वाभाविक है । यहां मैं आपको बता दूँ मैं सरकारी नहीं गैरसरकारी स्कूलों की बात कर रही हूँ ।
जी हाँ, आज घर में काम करने वाला या खाना बनाने वाला चार-पांच हजार से नीचे नहीं मिलता है ।और बूढ़े व्यक्तियों की सुरक्षा करने वाला तीस हजार रूपए लेता है ।आज एक गाड़ी का ड्राइवर दस हजार महीना लेता है। तिहाड़ी मजदूर दो सौ से पांच सौ प्रतिदिन का लेते हैं। पर एक टीचर आपको डेढ़- दो हजार में आराम से मिल जाएगा। मेरे जिले में कितने गैरसरकारी स्कूल है जो आज भी बच्चों और शिक्षकों के साथ खिलवाड़ करके अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। जिन्होंने शिक्षा को व्यवसाय बना रखा है । ऐसे स्कूलों की नकेल कसना आवश्यक है।
एक भूखा शिक्षक बच्चों को क्या देगा –
क्रोध, दुख और कुंठा ।इससे अधिक कुछ नहीं ।हाँ, और देगा ट्यूशन प्रवृत्ति को बढ़ावा और भ्रष्टाचार ।उसको अपना पेट तो भरना है, तो भाई जिसको भी परीक्षा में अच्छे अंक चाहिए वह घर पर पढ़ने आ जाओ ।कवि नीरज की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं –
तन की हवस मन को
गुनहगार बना देती है।
बाग- बाग को
बीमार बना देती है।
भूखे पेट को देश भक्ति
सिखलाने वालों ,
भूख इंसान को
गद्दार बना देती है।
अब तो आप समझ ही गए होंगे कि मेरा इशार किस तरफ है । शिक्षक जन्मजात होते हैं बनाये नहीं जाते हैं।
हम सारा दोष छात्रों पर मढ़ देते हैं । अब आप स्वयं समझ सकते हैं कि दोष किसका है और कितना है । आज आवश्यकता है विद्यालयों और शिक्षकों पर नजर रखने की ,साथ ही नियम बना कर सक्ति से उसका पालन करवाने की ।
कुकुरमुत्तों जैसे फैलते स्कूलों पर ध्यान देने की ।तब ही हमारे देश भविष्य उज्ज्वल और चरित्रवान होगा ।
— निशा नंदिनी गुप्ता
तिनसुकिया, असम