लघुकथा

अपनी अपनी सोच

अभी अभी नागमणि से सम्बंधित संस्मरण लिखते हुए मानव स्वभाव से सम्बंधित एक और घटना का स्मरण हो गया जो मेरे साथ घटी थी।
एक जगह मेरा पेड़ काटने का काम चल रहा था। मैं भी वहीँ एक लकड़े के बड़े टुकडे पर बैठा अखबार पढ़ रहा था। मजदूर अपना काम कर रहे थे। इतने में एक संभ्रांत युवक आकर मजदूरों से पुछने लगा- “तुम्हारा शेठ कहाँ है?”
मजदूरों ने मेरी तरफ इशारा किया। वह मेरे पास आया और बोला- “तुम लोगों का शेठ कहाँ है?”

मजदूरों के बताने के बावजूद उस युवक ने मुझसे भी वही सवाल किया था यह सुनकर मैं हंस पड़ा था और थोड़े मजाक के मुड़ में ही अनजान सा बनते हुए पूछा– “क्या बात है?”
अब वह थोडा सा खीझते हुए बोला- “अरे बताओ तो सही वो कब आते हैं? मुझे उनसे ही काम है।”
मैंने फिर से अपना प्रश्न दुहराया और बोला- “क्या काम है आप मुझे बता दो और अपना घर दिखा दो तो जब वो आयेंगे मैं उनको बता दूंगा और आपके घर पर भेज दुंगा।”
अब शायद उसे थोड़ी तसल्ली हुयी थी। बोला- “ठीक है आयेंगे तो वो सामने जो बंगला दिख रहा है वहीँ भेज दो। मुझे अपना पांच इमली का पेड़ बेचना है।”
अब उसको ज्यादा देर तक अँधेरे में न रखकर मैंने अपना परिचय दिया। यह सुनते ही वह थोडा हैरत में दिखा और विस्मय से उसने कई बार पुछा- “ये आपके आदमी हैं?” मैंने सहमति में सर हिलाया और तब कहीं जाकर मुश्किल से उसे यकिन हुआ।
ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा कि उसने यह अंदाजा लगाया होगा कि इतने बड़े पैमाने पर काम चल रहा है तो जो यह काम कर रहा है वह भी बहुत रईस जैसा दिखता होगा। उसे यह बात हजम नहीं हो रही थी कि मुझ जैसा साधारण सा दिखनेवाला कहीं भी बैठनेवाला आदमी  इतने मजदूरों को रोजगार देनेवाला कैसे हो सकता है?
कहने का तात्पर्य यह है कि आज भी लोगों की क्षमता को वेशभूषा और पहनावे से ही आंका जाता है।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।