ग़ज़ल “तिज़ारत में सियासत है”
जमाना है तिजारत का, तिज़ारत ही तिज़ारत है
तिज़ारत में सियासत है, सियासत में तिज़ारत है
नहीं अब वक़्त है, ईमानदारी का सचाई का
खनक को देखते ही, हो गया ईमान ग़ारत है
हुनर बाज़ार में बिकता, इल्म की बोलियाँ लगतीं
वजीरों का वतन है ये, दलालों का ही भारत है
प्रजा के तन्त्र में कोई, नहीं सुनता प्रजा की है
दिखाने को लिखी, मोटे हरफ में बस इबारत है
हवा का एक झोंका ही धराशायी बना देगा
खड़ी है खोखली बुनियाद पर, ऊँची इमारत है
लगा है घुन नशेमन में, फक़त अब “रूप” है बाकी
हमारी अंजुमन में तो, निगहेबानी नदारत है
— डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’