ब्लॉग/परिचर्चा

एक आदर्श गुरु — आदरणीया लीला बहनजी !

आज गुरु पूर्णिमा है । नित्य की भांति सुबह सुबह अपना ब्लॉग पर आदरणीय लीला बहनजी का ब्लॉग  ‘ बिंध जाए सो मोती , रह जाये सो दाना ‘पढ़कर यह जानकारी हुई और कुछ लिखने की इच्छा जागृत हो गयी ।
अपना लेख गुरु महिमा से शुरू करते हुए बहनजी ने स्वामी रामकृष्ण परमहंस और उनके विश्वविख्यात परम शिष्य स्वामी विवेकानंद के गुरु शिष्य के पावन संबंध को रेखांकित करता उनके जीवन का एक प्रसंग बड़े ही मनभावन तरीके से वर्णन किया है । और फिर अपने सकारात्मक संदेश देने की परिपाटी को अब्राहम लिंकन का जीवन व्रित्तान्त  बताकर असफलताओं से घबराए बिना निरंतर प्रयत्नशील बने रहने का अनुपम संदेश दिया है ।  आज जब सभी अपने अपने गुरुओं को याद करते हुए अपनी अपनी तरह से उनके प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट कर रहे हैं मैं भी अपनी भावनाएं व्यक्त करने से अपने आपको नहीं रोक पा रहा हूँ ।
 यूं तो मुझे कई गुरुओं का कृपा पात्र होने व उनका स्नेह दुलार व ध्यान विशेष रूप से पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है लेकिन आज मैं जिक्र करनेवाला हूँ अपने उस आदर्श परम गुरु , सच्चे मार्गदर्शक , परम हितैषी , स्नेह व आत्मीयता से सराबोर शख्सियत के साथ ही  अपना ब्लॉग में 1000 लेखों के प्रकाशित होने का गौरव प्राप्त एकमात्र रचनाकार आदरणीय लीला बहनजी का । तो क्या हुआ मैंने उनकी कक्षा में पढ़ने का सौभाग्य नहीं पाया ? लेकिन आधुनिक संचार युग में कोई किसी से दूर कहाँ ? हम इन्हीं माध्यमों की सहायता से उनके संपर्क व मार्गदर्शन में लेखन का ककहरा सीखने का प्रयास कर रहे हैं ।
चाहे कोई कितना भी आधुनिक क्यों न बन जाये किस्मत जैसी चीज की प्रासंगिकता को कभी न कभी अवश्य मानना पड़ता है । और इसी किस्मत की बलिहारी कि हमने आज से लगभग एक वर्ष पूर्व अपना ब्लॉग में बहनजी की नायाब रचनाओं का रसास्वादन करते हुए कुछ प्रतिक्रियाएं लिखनी शुरू कर दीं । प्रतिक्रियाओं का यथोचित सस्नेह प्रत्युत्तर प्रतिक्रियाएं लिखने के प्रति और समर्पित करते गया और एक दिन लीला बहनजी का मेल देखकर हमारी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा । मेल में आपने लिखा था ‘ यदि आप कहीं कुछ लिखते हैं तो हमें बताइए हम पढ़ना चाहेंगे ।’ लेकिन लेखन कला के ककहरे से भी नावाकिफ हम भला क्या जवाब देते ? लेकिन जवाब तो देना ही था सो जवाब में लिख दिया ‘ लिखना तो चाहते थे लेकिन जीवन की आपाधापी में सब कुछ पीछे छूट गया है ‘ । अगले थोड़ी ही देर बाद बहनजी का एक और मेल हाजिर था । इस मेल में आदरणीय गुरमैल भाई जी के संक्षिप्त परिचय के साथ ही उनकी आत्मकथा की 8 ebooks का समावेश था और उन्हीं की तरह से लेखन की शुरुआत करने का आग्रह करते हुए उत्साहवर्धन का भरपूर प्रयास दृष्टिगोचर हो रहा था । लेकिन अफसोस हम हिम्मत नहीं जुटा सके ।
 एक दिन अपना ब्लॉग पर बहनजी की रचना ‘कोमल की कमनीयता’ में कोमल नाम के किन्नर का चरित्र चित्रण पढ़कर हमें अपने बचपन का किन्नरों से संबंधित एक वाकया याद हो आया और प्रतिक्रिया लिखने के बाद जुट गए वह वाकया लिखने में । थोड़ी ही देर में हमारे मेल में वह रचना ड्राफ्ट के रूप में संरक्षित हो गयी। एक बार पढ़कर वह शीर्षकविहीन रचना बहनजी को प्रेषित करते हुए थोड़ी घबराहट का होना स्वाभाविक ही था। लेकिन कुछ ही देर बाद बहनजी का उत्साहवर्धन करनेवाला मेल देखकर मेरी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा । और उन्होंने इस शीर्षकविहीन रचना को ‘ काबिलियत की कसौटी पर -किन्नर ‘ नाम देते हुए कृपापूर्वक अपना ब्लॉग में प्रकाशित कर दिया । इतना ही नहीं ‘जय विजय’ में एक रचनाकार के रूप में मेरा परिचय व पंजीकरण भी करा दिया । यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी जिसे मैं नासमझ समझ नहीं पाया और कई दिनों तक कुछ भी नहीं लिख पाया । वजह साफ थी क्या लिखना है मुझे यही नहीं पता था । ऐसे में एक दिन बहनजी का एक पत्र मिला जिसमें उन्होंने और कुछ लिखने और लिखते रहने का आग्रह किया था । इस पत्र से प्रभावित मैंने तुरंत ही सिकंदर से संबंधित एक वाकया बहनजी को लिख भेजा जिसे संपादित स्वरूप में भेज कर रचना की तारीफ करते हुए उसे ‘जय विजय’ में प्रकाशित करने का तरीका बताया । और फिर इसके बाद ‘चलो कहीं सैर हो जाये ‘ के नाम से यात्रा संस्मरण के रूप में मेरी साहित्य साधना शुरू हो गयी जो बहनजी के मार्गदर्शन में आज भी अनवरत जारी है । इस बीच आपके ब्लॉग्स के माध्यम से कई नायाब जानकारियां भी हमें आपके बारे में मिलती रहीं और हृदय आपके प्रति श्रद्धा से लबालब होता गया ।
 आपके ही लेख में आपकी शिष्या ‘ जय श्री पिप्पील ‘ की चर्चा पढ़ते हुए यह अहसास हुआ कि आप अपने से संबंधित हर शख्स की छोटी से छोटी बात का ख्याल रखती हैं । और यह अहसास यकीन में बदल गया जब आपने कई मौकों पर मुझे केंद्र में रखते हुए भी ब्लॉग लिख दिया ।
  आदरणीय गुरमैल भाई जी व आदरणीय सूर्य भान भान भाई जी को उत्साहित व लेखन के प्रति जागरूक करने व मार्गदर्शन करने का कारनामा आप पूर्व में ही कर चुकी थीं । मेरा लेखन अभी शुरू हुआ ही था कि आदरणीय श्री रविंदर सूदन जी के रूप में एक और नायाब रचनाकार आपकी खोजी निगाहों के जद में आ चुके थे और शीघ्र ही एक धमाकेदार रचना से उनका भी परिचय आपने अपने पाठकों से करा दिया । अपनी रचनाओं से आदरणीय रविंदर भाई जी अपनी अनुपम कल्पना शक्ति की छवि दिखा ही चुके हैं ।
 आज जबकि आधुनिक गुरु अर्थोपार्जन की लालसा में अपनी विश्वसनीयता खोते हुए अपनी प्रतिबद्धिता से भटक रहे हैं आप आज भी अपने छात्रों को निःस्वार्थ गाहेबगाहे याद कर उनके सुखमय भविष्य की कामना करते हुए उनपर शुभकामनाओं व आशीर्वाद की झड़ी लगा देती हैं । हम जैसे नितांत अजनबी गुमनाम लोगों पर भी अटल विश्वास करते हुए उन्हें कुछ लायक बना देने का करिश्मा कर पाने का अलौकिक सामर्थ्य सिर्फ आप में ही देखा गया है और इसका श्रेय आपकी सदाशयता स्नेहमयी बर्ताव व सहयोगी स्वभाव के साथ ही हरदम कुछ सीखने व सीखाने की आदत को जाता है । अपने नायाब मार्गदर्शन से आप अपने सान्निध्य में आये सभी रचनाकारों को लाभान्वित करते हुए खुद भी साहित्त्य साधना में लीन रहती हैं । और यह सब देखते हुए आदरणीय गुरमैल भाई जी का यह कथन बिलकुल सही और सटीक लगता है ‘ आप वो पारस हैं जिसके छूने मात्र से लोहा सोना बन जाता है ।
अब अपनी लेखनी को यहीं विराम देते हुए सदैव ही आपका मार्गदर्शन व स्नेह मिलता रहे यही कामना करता हूँ ।
 आज गुरु पूर्णिमा के इस पावन अवसर पर हम सभी नवोदित रचनाकार गुरमैल भाई जी, रविंदर भाई जी, सूर्य भान भान भाई जी व समस्त पाठकों की तरफ से आपको सस्नेह प्रणाम व वंदन !

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।