दो मृगछौने
देख के दो सुंदर मृगछौने,
मन ने पूछा ये हैं कौन?
मन उत्तर-प्रतिउत्तर करता,
मृगछौने तो रहते मौन.
एक है अलख, अलेप, अनादि (अतींद्रिय),
नाम है उसका ब्रह्म महान,
एक लिप्त होता है जग में,
जीव है उसका नाम निदान.
नहीं नहीं, यह ठीक नहीं है,
ये तो हैं दिन-रात समान,
एक दिवस की किरणें लाता,
एक दिवस का है अवसान.
अथवा ये सुख-दुःख साक्षात हैं,
साथ-साथ हरदम रहते हैं,
दुःख के पीछे सुख आता है,
सुख में सम्मिलित दुःख रहते हैं.
शायद ये जीवन-मृत्यु हों,
कभी नहीं ये मिल पाएंगे,
तभी भिन्न दिशा में मुख है,
ऐसे ही ये रह जाएंगे.
ये हैं सिक्के के दो पहलू,
या कि नदी के हैं दो छोर,
अथवा दो ध्रुव भूमंडल के,
इनका कोई ओर न छोर.
कोई भी हों ये इससे क्या है,
सीख हमें लेनी है इनसे,
भिन्न दिशा में मुख हों तब ही,
वार्ता कर सकते हैं सुख से.
मेरी छात्रा जयश्री पिप्पिल ने 1984 में दो मृगछौने चित्र बनाकर मुझे उपहार में दिया था, जिसे मैंने अपने कविता-संग्रह के कवर पर लगा रखा है. यह कविता उसी चित्र पर आधारित है .