समकालीन कविताएँ
(1) क्षुधा
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जो कभी
भूखा न रहा
वह क्या जाने
ऐंठती आँतों का दर्द
बंद होती
आँखों का अंधेरा
और
क़दमों की
लड़खड़ाहट
…और वैसे भी
वातानुकूलित में बैठकर
क्षुधा का अर्थ
नहीं समझा
जा सकता !
(2) कोरा कागज़
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काश
मेरी ज़िन्दगी
कोरा कागज़
होकर ही रह जाती
तो कितना
अच्छा होता
स्याही फैलने
आड़ी-तिरछी
लकीरें खिंचने
और निरर्थक
शब्दों का अंकन
होने से तो कहीं
बेहतर है
कोरा ही रह जाना!
(3) जुगनू
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माना कि तुम्हें
ज़रूरत है
सूरज की
उन्हें भी
और मुझे भी
पर
सूरज की आस में
ठुकरा देना
हाथ आये
जुगनू को
नहीं है
मूर्खता के सिवाय
कुछ और !
— प्रो. शरद नारायण खरे