दुनिया
आह की तुम बात न करो ,
आंसुओं को कब भिगो पाया है जहां
बहती ही रही नदी निस्वार्थ भाव से
किनारों को कब साहिल दे पाया है जहाँ ।
प्यार की तुम बात न करो ,
रिश्तों को कब निभा पाया है जहां
लिखती ही रही कलम सबका दर्द
दर्द को कब समझ पाया है जहाँ ।
न्याय की तुम बात न करो ,
खुद को भूला दिया खुश करने को जहां
बेधते रहे वही अपनों के भेष में
कब किसी का बन पाया है जहां
अनजान की तुम बात न करो
कब जानने वालों ने छोड़ा ये जहां
खोदते ही रहे मिट्टी जड़ तक
अपनों के जुल्मसे थर्राया ये जहां
सहारों की तुम बात न करो
अपना बनकर रुलाता है ये जहां
भंवर में छोड़कर अपने ही हमसाये को
कोई बन जाता है जब अनजान यहां ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़