सामाजिक

सदाचार बनाम समलेंगिकता

सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैगिंकता को धारा 377 के अंतर्गत अपराध करार दिया गया था। यह मामला फिर से कोर्ट में पुनर्विचार के लिए आया है। अपने आपको सामाजिक कार्यकर्ता कहने वाले, आधुनिकता का दामन थामने वाले एक विशेष बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा सुप्रीम कोर्ट केनिर्णय को बदलने के लिए पूरा प्रयास कर रहे है। उनका कहना हैं कि अंग्रेजों द्वारा 1861 में बनाया गया कानून आज अप्रासंगिक है। कोई इस फैसले को इतिहास का काला दिन बता रहा है, कोई इसे सामाजिक अधिकारों में भेदभाव और मौलिक अधिकारों का हनन बता रहा है, कोई इसे पाषाण युग की सोच बता रहा हैं। समलैगिंकता का समर्थन करने वालों का पक्ष का कहना है कि इससे HIV की रोकथाम करने में रुकावट होगी। क्यूंकि इससे समलैगिंक समाज के लोग रोक लगने पर खुलकर सामने नहीं आते और दूसरे सामाजिक कार्यकर्ताओं को पुलिस इस समाज में HIV प्रचार करने से रोकती हैं।

अधिकतर धार्मिक संगठनों समलेंगिकता के विरुद्ध है। उनका कहना है कि यह करोड़ो भारतीयों का नैतिकता और सदाचार में विश्वास हैं। उनकी भावनाओं का आदर होना चाहिए। समलेंगिकता को प्रोत्साहन देना क्यों गलत है। इस विषय पर तार्किक विवेचना करे।

हमें इस तथ्य पर विचार करने कि आवश्यकता है की अप्राकृतिक स्वछंद सम्बन्ध समाज के लिए क्यों अहितकारक है? अपने आपको आधुनिक बनाने की हौड़ में स्वछंद सम्बन्ध की पैरवी भी आधुनिकता का परिचायक बन गया है। सत्य यह है कि इसका समर्थन करने वाले इसके दूरगामी परिणामों कि अनदेखी कर देते है। प्रकृति ने मानव को केवल और केवल स्त्री-पुरुष के मध्य सम्बन्ध बनाने के लिए बनाया हैं। इससे अलग किसी भी प्रकार का सम्बन्ध अप्राकृतिक एवं निरर्थक हैं। चाहे वह पुरुष-पुरुष के मध्य हो, स्त्री स्त्री के मध्य हो। वह केवल विकृत मानसिकता को जन्म देता है। उस विकृत मानसिकता की कोई सीमा नहीं हैं। उसके परिणाम आगे चलकर बलात्कार (Rape) , सरेआम नग्न होना (Exhibitionism), पशु सम्भोग (Bestiality), छोटे बच्चों और बच्चियों से दुष्कर्म (Pedophilia), हत्या कर लाश से दुष्कर्म (Necrophilia), मार पीट करने के बाद दुष्कर्म (Sadomasochism) , मनुष्य के शौच से प्रेम (Coprophilia) और न जाने किस किस रूप में निकलता हैं। अप्राकृतिक सम्बन्ध से संतान न उत्पन्न हो सकना क्या दर्शाता है? सत्य यह है कि प्रकृति ने पुरुष और नारी के मध्य सम्बन्ध का नियम केवल और केवल संतान की उत्पत्ति के लिए बनाया था। आज मनुष्य ने अपने आपको उन नियमों से ऊपर समझने लगा है और जिसे वह स्वछंदता समझ रहा है। वह दरअसल अज्ञानता है। भोगवाद मनुष्य के मस्तिष्क पर ताला लगाने के समान है। भोगी व्यक्ति कभी भी सदाचारी नहीं हो सकता, वह तो केवल और केवल स्वार्थी होता है। इसीलिए कहा गया है कि मनुष्य को सामाजिक हितकारक नियम पालन का करने के लिए बाध्य होना चाहिए। जैसे आप अगर सड़क पर गाड़ी चलाते है, तब आप उसे अपनी इच्छा से नहीं। अपितु ट्रैफिक के नियमों को ध्यान में रखकर चलाते है। वहाँ पर आप कभी स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का प्रयोग नहीं करते? अगर करेगे तो दुर्घटना हो जायेगी। जब सड़क पर चलने में स्वेच्छा कि स्वतंत्रता नहीं है। तब स्त्री पुरुष के मध्य संतान उत्पत्ति करने के लिए विवाह व्यवस्था जैसी उच्च सोच को नकारने में कैसी बुद्धिमत्ता है?

कुछ लोगो द्वारा समलेंगिकता के समर्थन में खजुराओ की नग्न मूर्तियाँ अथवा वात्सायन का कामसूत्र को भारतीय संस्कृति और परम्परा का नाम दिया जा रहा हैं। जबकि सत्य यह है कि भारतीय संस्कृति का मूल सन्देश वेदों में वर्णित संयम विज्ञान पर आधारित शुद्ध आस्तिक विचारधारा है।

भौतिकवाद अर्थ और काम पर ज्यादा बल देता है। जबकि अध्यातम धर्म और मुक्ति पर ज्यादा बल देता है। वैदिक जीवन में दोनों का समन्वय है। एक ओर वेदों में पवित्र धनार्जन करने का उपदेश है। दूसरी ओर उसे श्रेष्ठ कार्यों में दान देने का उपदेश भी है। एक ओर वेद में भोग केवल और केवल संतान उत्पत्ति के लिए है। दूसरी तरफ संयम से जीवन को पवित्र बनाये रखने की कामना है। एक ओर वेद में बुद्धि की शांति के लिए धर्म की और दूसरी ओर आत्मा की शांति के लिए मोक्ष (मुक्ति) की कामना है। धर्म का मूल सदाचार है। अत: कहाँ गया है कि आचार परमो धर्म: अर्थात सदाचार परम धर्म है। आचारहीन न पुनन्ति वेदा: अर्थात दुराचारी व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते। अत: वेदों में सदाचार, पाप से बचने, चरित्र निर्माण, ब्रहमचर्य आदि पर बहुत बल दिया गया हैं।

जैसे-

यजुर्वेद ४/२८ – हे ज्ञान स्वरुप प्रभु मुझे दुश्चरित्र या पाप के आचरण से सर्वथा दूर करो तथा मुझे पूर्ण सदाचार में स्थिर करो।
ऋग्वेद ८/४८/५-६ – वे मुझे चरित्र से भ्रष्ट न होने दे।
यजुर्वेद ३/४५- ग्राम, वन, सभा और वैयक्तिक इन्द्रिय व्यवहार में हमने जो पाप किया हैं उसको हम अपने से अब सर्वथा दूर कर देते हैं।
यजुर्वेद २०/१५-१६- दिन,रात्रि,जागृत और स्वपन में हमारे अपराध और दुष्ट व्यसन से हमारे अध्यापक,आप्त विद्वान,धार्मिक उपदेशक और परमात्मा हमें बचाए।
ऋग्वेद १०/५/६- ऋषियों ने सात मर्यादाएं बनाई हैं. उनमे से जो एक को भी प्राप्त होता हैं, वह पापी हैं. चोरी, व्यभिचार, श्रेष्ठ जनों की हत्या, भ्रूण हत्या, सुरापान, दुष्ट कर्म को बार बार करना और पाप करने के बाद छिपाने के लिए झूठ बोलना।
अथर्ववेद ६/४५/१- हे मेरे मन के पाप! मुझसे बुरी बातें क्यों करते हो? दूर हटों. मैं तुझे नहीं चाहता।
अथर्ववेद ११/५/१०- ब्रहमचर्य और तप से राजा राष्ट्र की विशेष रक्षा कर सकता हैं।
अथर्ववेद११/५/१९- देवताओं (श्रेष्ठ पुरुषों) ने ब्रहमचर्य और तप से मृत्यु (दुःख) का नष्ट कर दिया हैं।
ऋग्वेद ७/२१/५- दुराचारी व्यक्ति कभी भी प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकता।

इस प्रकार अनेक वेद मन्त्रों में संयम और सदाचार का उपदेश हैं।

मनु स्मृति में समलेंगिकता के लिए दंड एवं प्रायश्चित का विधान होना स्पष्ट रूप से यही दिखाता है कि हमारे प्राचीन समाज में समलेंगिकता किसी भी रूप में मान्य नहीं थी। इसके अतिरिक्त बाइबिल, क़ुरान दोनों में इस सम्बन्ध को अनैतिक, अवाँछनीय, अवमूल्यन का प्रतीक बताया गया है।

जो लोग यह कुतर्क देते है कि समलेंगिकता पर रोक से AIDS कि रोकथाम होती है। उनके लिए विशेष रूप से यह कहना चाहूँगा कि समाज में जितना सदाचार बढ़ेगा उतना समाज में अनैतिक सम्बन्धो पर रोकथाम होगी। आप लोगो का तर्क कुछ ऐसा है कि आग लगने पर पानी कि व्यवस्था करने में रोक लगने के कारण दिक्कत होगी। हम कह रहे है कि आग को लगने ही क्यों देते हो? भोग रूपी आग लगेगी तो नुकसान तो होगा ही होगा। कहीं पर बलात्कार होगे, कहीं पर पशुओं के समान व्यभिचार होगा , कहीं पर बच्चों को भी नहीं बक्शा जायेगा। इसलिए सदाचारी बनो नाकि व्यभिचारी।

एक कुतर्क यह भी दिया जा रहा है कि समलेंगिक समुदाय अल्पसंख्यक है। उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए उन्हें अपनी बात रखने का मौका मिलना चाहिए। मेरा इस कुतर्क को देने वाले सज्जन से पप्रश्न हैं कि भारत भूमि में तो अब सदाचार का पालन करने वाले भी अल्पसंख्यक हो चले हैं। उनकी भावनाओं का सम्मान रखने के लिए मीडिया द्वारा जो अश्लीलता फैलाई जा रही है। उनपर लगाम लगाना भी तो अल्पसंख्यक के हितों कि रक्षा के समान है।

एक अन्य कुतर्की ने कहा कि पशुओं में भी समलेंगिकता देखने को मिलती हैं। मेरा उस बंधू से एक ही प्रश्न है कि अनेक पशु बिना हाथों के केवल जिव्हा से खाते हैं। आप उनका अनुसरण क्यों नहीं करते? अनेक पशु केवल धरती पर रेंग कर चलते है। आप उनका अनुसरण क्यों नहीं करते?

समलेंगिकता एक विकृत सोच है। यह एक मनोरोग है। अमरीका के मनोरोग विशेषज्ञ दो दशक पहले तक समलेंगिकता को मानसिक रोग मानते थे। जब समलेंगिकता के समर्थक बढ़ गए तो उन्हीं मनोरोगियों के संगठन ने इसे बीमारी से हटाकर सामान्य मानसिक विचार की संज्ञा दे दी। इसका समाधान इसका विधिवत उपचार है नाकि इसे प्रोत्साहन देकर सामाजिक व्यवस्था को भंग करना है। इसका समर्थन करने वाले स्वयं अँधेरे में हैं। अन्यों का क्या ही भला करेंगे।

कभी समलेंगिकता का समर्थन करने वालो ने भला यह सोचा हैं कि अगर सभी समलेंगिक बन जायेगे तो अगली पीढ़ी कहां से आयेगी?

— डॉ विवेक आर्य