दूजों को कब हम रोते हैं
ग़ज़ल
दूजों को कब हम रोते हैं।
अपने अपने गम होते हैं।।
साथ मेरे होता नही वो तो,
दर्द भरे मौसम होते हैं।
खुश्क नज़र को आंक रहे हो,
भीतर भी सावन होते हैं।
चटक रंग या रेशमी देखो,
भीगे सब दामन होते हैं।
शोर शराबा अब यही बाकि,
जब घर में मातम होते हैं।
रंज नही बस हँसी ख़ुशी हो,
ऐसे किस्से कम होते हैं।
भीतर अब हर चीज़ खोखली,
बाहर रंग रोगन होते हैं।
दुनिया को जो लफ्ज़ तीर हैं,
मुझको ‘लहर’ मरहम होते हैं।