लघुकथा — मृत संवेदनाएं
“बेटा अनंत, पिछले महीने तेरे पापा को ज़बरदस्त हार्ट अटैक आया था।” शहर में नौकरी कर रहे अनंत से गांव में रहने वाली उसकी मां ने फोन पर कहा।
“अच्छा।” बेटे ने कहा।
“पर तेरे पापा ने तुम लोगों को ख़बर देने से मना कर दिया था।” मां ने कहा।
“जी।” बेटे ने जवाब दिया।
“मैं तो चाह रही थी कि तुझे ख़बर दे दूं, जिससे तुम शहर ले जाकर पापा का ठीक ढंग से इलाज करा सको।” मां ने कहा।
“ठीक है मां।” बेटे ने संक्षिप्त जवाब दिया।
“पर, वो क्या है कि तेरे पापा का सोचना था कि अगर हम तुझे उनकी बीमारी की ख़बर देंगे, तो तू अपना काम छोड़कर दौड़ता -दौड़ता आएगा, और उन्हें शहर ले जाकर उनकी तीमारदारी में जुट जाएगा।” मां ने कहा।
“हां,वह तो होता ही।” बेटा बोला।
फोन पर मां से बात ख़त्म होते ही अनंत अपनी बीवी से बोला -“मीनाक्षी,अच्छा रहा कि मां ने पापा की बीमारी की ख़बर नहीं दी, नहीं तो ऑफिस के कामों की ज़बरदस्त व्यस्तता के बीच यह बिलकुल संभव ही नहीं था कि मैं गांव जाकर पापा को यहां लाकर उनका इलाज कराता, और देखभाल करता। पैसे-धेले की परेशानी होती, वो अलग ही।”
“और, मुझे भी तो”लेडीज क्लब”के कामों से कितने दिनों से दम मारने तक को फुरसत ही कहां मिलती है?” अनंत की पत्नी ने रूखेपन के साथ जवाब दिया।
— प्रो.शरद नारायण खरे