चरित्र
डूब रही थी जब एक नैया
बीच धार एक तूफानी रात,
लगी जाकर किनारे तब
तूफानों ने दिया उसका साथ।
पूछा नैया से तब किनारे ने
मित्र पतवार क्यों छोड़ा हाथ,
जिस पर भरोसा किया तुमने
दगा किया उसने तुम्हारे साथ।
कहा नैय्या ने किनारे से
यही दुनिया यही है दस्तूर,
कोई नहीं हाथ बढ़ाता है
जब होता है कोई मजबूर।
जब सुख के दिन आते हैं
गले लगाते सब हंसकर,
देखकर आंखों में आंसू
चल पड़ते हैं पलट कर।
तूफां को समझा दुश्मन
उसी ने निभाया मेरा साथ,
दुश्मन कौन, कौन है दोस्त
नहीं समझ आती यह बात।
बुरे वक्त में जो काम आए
वही होता एक सच्चा मित्र,
बुरे वक्त में समझ आता है
मनुष्यों का असली चरित्र।
पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।