एक चिड़िया और एक पेड़ की मार्मिक कहानी
एक नदी के किनारे दो पेड़ खड़े थे, वर्षा ऋतु से पूर्व जब खूब बारिश होने वाली थी, एक नन्हीं सी चिड़िया उन दो पेड़ों में से एक के पास, जाकर उसकी घनी शाखाओं के बीच अपने घोसले बनाने की अनुमति मांगी, परन्तु उस पेड़ ने उसे अपनी घनी शाखाओं में घोसले बनाने से साफ मना कर दिया।
अब वह दूसरे पेड़ के पास गई और उससे अपने घनी शाखाओं में घोसले बनाने की अनुमति मांगी तो उस पेड़ ने सहर्ष उसे अपनी घनी शाखाओं में घोसले बनाने की अनुमति प्रदान कर दी।
चिड़िया उस पेड़ पर खुशी -खुशी अपना घोसला बनाई, कुछ दिनों बाद उसमें उसके दो नन्हें – मुन्ने बच्चे किलकारियां भरने लगे, उन्हें वह खुशी – खुशी दाना – दुनका खिलाने लगी, बच्चे अपनी मीठी – मीठी आवाज में चीं -चीं करते, धीरे -धीरे बढ़ चले। तभी एक दिन काली – काली घटाओं वाले मेघ पूरे आकाश को ढक लिए और लगातार कई दिनों तक मूसलाधार बारिश होती रही। नदी में तीव्र जल का प्रवाह अपने पूरे उफान पर बहने लगा, उसका जलस्तर भी बहुत ऊपर तक उठ गया, जिस पेड़ पर चिड़िया घोसले बनाई थी और दूसरा पेड़ भी आधे -आधे तक नदी के जल में डूब गये, नदी के तेज धारा में वे झुककर तिरछे होने लगे। चिड़िया जिस पेड़ पर घोसला बनाई थी, वह तो किसी प्रकार बच गया, परन्तु, पास वाला पेड़ नदी के उस भीषण तेज प्रवाह में अपने को उखड़ने से नहीं रोक पाया और वह जड़ सहित उखड़कर नदी के अथाह और तेज धारा में बहने लगा।
चिड़िया यह सब दृश्य ध्यान से देख रही थी, उससे अब नहीं रहा गया वह उस नदी में गिरे हुए असहाय बहते पेड़ से बोली, ‘देखो ! तुमने एक दिन मुझे अपने ऊपर घोसले बनाने से साफ मना कर दिया था, इसलिए तुम नदी के तीव्र प्रवाह में बहने को अभिषापित हो गये, अगर तुम मुझे अपने ऊपर घोसले बनाने देते तो तुम्हारी यह बुरी हालत नहीं होती। ‘
यह सुनकर उस जड़ सहित उखड़े और नदी के तीव्र प्रवाह में बहता हुआ पेड़ बोला, ‘मेरी प्रिय चिड़िया बहन ! ऐसी बात नहीं है, मैं अपने बारे में, अपनी कमजोरियों के बारे में, अपनी मजबूरियों के बारे में, अपनी जड़ों के कमजोर होने को बारे में, खूब ठीक से जानता था और ये भी कि इस साल होने वाली भयंकर बारिश के मौसम में इस नदी में आने वाली इस भीषण बाढ़ में, मेरी कमजोर जड़ें मुझे सम्भाल नहीं पायेंगी और मैं भीषण बाढ़ की चपेट में बच नहीं पाऊँगा, यह सोचकर ही मैंने तुम्हें अपने ऊपर घोसला बनाने से मना कर दिया था, क्योंकि मेरे साथ तुम्हारे बच्चे भी नदी के भीषण जल प्रवाह में बह कर मारे जाते ! ‘, यह कहते – कहते वह कृषकाय जड़ों वाला पेड़ नदी के तेज प्रवाह में बहते हुए चिड़िया की आँखों से ओझल हो गया।
अब चिड़िया को उस पेड़ की गंभीर बातों को सुनकर रोना आ गया….
हम भी अक्सर अपने जीवन में ‘बहुत सी भलाई करने वाले ‘अपने मित्रों और अपने परिजनों से कोई उनकी एक काम न करने की मजबूरी में किए गये इंकार से, इतने क्रोधित और प्रतिशोधित हो जाते हैं कि उनसे सदा के लिए दूरी बना लेते हैं, सम्बन्ध -विच्छेद तक कर लेते हैं, जबकि अन्ततः जब सच्चाई का पता चलता है तो यह मालूम होता है कि उनके किए ‘उस कृत्य ‘में भी हमारी ‘भलाई ही अन्तर्निहित ‘थी।
— निर्मल कुमार शर्मा, गाजियाबाद