लघुकथा

लघु कथा – तहज़ीब

अमीर कालोनी की एक आलीशान गाड़ी में जब भी अलसेशियन कुत्ता जैक अपने मालिक के साथ सुबह सुबह हवाखोरी करने निकलता तो राह में मिलते सड़क के कुत्ते उसे देखकर भौंकते और काफी दूर तक पीछा करते, जैक भी भौंकता। एक दिन मालिक ने जैक से कहा ‘बिल्कुल भी तहज़ीब नहीं है इन कुत्तों को, भौंक भौंककर शांति भंग कर देते हैं।’ बात जैक को चुभ गई, आखिर उसी की जात के तो हैं। एक दिन सुबह-सुबह हर रोज़ की भांति जब जैक गाड़ी में से सिर निकाले ठंडी हवा खाते हुए जा रहा था तो हमेशा की भांति सड़क के कुत्ते उस गाड़ी के साथ साथ भागते हुए भौंकने लगे। वातावरण में शोरगुल सा मच गया था। जैक उन्हें देख भौंका और बोला ‘ज़रा तहज़ीब तो सीख लो, इस तरह से भौंकना अच्छा नहीं है।’ सड़क के कुत्ते उसकी बात सुनकर हैरान रह गए और आपस में चर्चा करने लगे। उधर मालिक को भी यह महसूस हुआ कि जैक ने आज अलग तरह से भौंका था।

एक दिन रात को उस अमीर कालोनी में जबरदस्त पार्टी थी। हर तरह के व्यंजन परोसे जा रहे थे। सड़क के कुत्ते भी सूंघते सूंघते वहां आ पहुंचे थे। ‘कल सुबह तो हमारी पार्टी हो सकती है’ सभी ने आपस में एक दूसरे से कहा था और फिर वहां से चले गये। सुबह-सुबह कुत्ते अंगड़ाइयां लेते हुए, कसरतें करते हुए उस कालोनी में जा पहुंचे और उनके अनुमान के मुताबिक अभी बहुत सा खाने का सामान बड़े-बड़े डस्टबिन होने के बाद भी बिखरा पड़ा था। उन कुत्तों ने कुछ बचा हुआ खाने का सामान एक जगह इकट्ठा किया और पार्टी मनाने की योजना बनाई। अभी वे आराम से बैठकर खाना शुरू ही करने वाले थे कि जैक वाली कार तेज़ी से आई जिसे देखकर कुत्ते जान बचाने के लिए इधर उधर हो गये और गाड़ी के पहिए उनके इकट्ठे किये सामान को रौंदते हुए निकल गए। यह देखकर कुत्ते फिर गाड़ी के पीछे भागे और भागते भागते बोले ‘हमें तहज़ीब सीखने की बात करते हो, ज़रा अपने मालिक को तहज़ीब सिखाओ, हमारे खाने को गाड़ी से रौंदता चला गया है।’ जैक ने शर्म से सिर झुका लिया और गाड़ी के अन्दर दुबक गया।

सुदर्शन खन्ना

वर्ष 1956 के जून माह में इन्दौर; मध्य प्रदेश में मेरा जन्म हुआ । पाकिस्तान से विस्थापित मेरे स्वर्गवासी पिता श्री कृष्ण कुमार जी खन्ना सरकारी सेवा में कार्यरत थे । मेरी माँ श्रीमती राज रानी खन्ना आज लगभग 82 वर्ष की हैं । मेरे जन्म के बाद पिताजी ने सेवा निवृत्ति लेकर अपने अनुभव पर आधरित निर्णय लेकर ‘मुद्र कला मन्दिर’ संस्थान की स्थापना की जहाँ विद्यार्थियों को हिन्दी-अंग्रेज़ी में टंकण व शाॅर्टहॅण्ड की कला सिखाई जाने लगी । 1962 में दिल्ली स्थानांतरित होने पर मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य स्नातक की उपाधि प्राप्त की तथा पिताजी के साथ कार्य में जुड़ गया । कार्य की प्रकृति के कारण अनगिनत विद्वतजनों के सान्निध्य में बहुत कुछ सीखने को मिला । पिताजी ने कार्य में पारंगत होने के लिए कड़ाई से सिखाया जिसके लिए मैं आज भी नत-मस्तक हूँ । विद्वानों की पिताजी के साथ चर्चा होने से वैसी ही विचारधारा बनी । नवभारत टाइम्स में अनेक प्रबुद्धजनों के ब्लाॅग्स पढ़ता हूँ जिनसे प्रेरित होकर मैंने भी ‘सुदर्शन नवयुग’ नामक ब्लाॅग आरंभ कर कुछ लिखने का विचार बनाया है । आशा करता हूँ मेरे सीमित शैक्षिक ज्ञान से अभिप्रेरित रचनाएँ 'जय विजय 'के सम्माननीय लेखकों व पाठकों को पसन्द आयेंगी । Mobile No.9811332632 (Delhi) Email: mudrakala@gmail.com

2 thoughts on “लघु कथा – तहज़ीब

  • सुदर्शन खन्ना

    आदरणीय दीदी, सादर प्रणाम. आपको यह लघुकथा अच्छी लगी और आपने इस पर अभूतपूर्व प्रतिक्रिया की है जिसके लिए मैं आपका आभारी हूँ. आपने बिलकुल ठीक कहा है कि तहज़ीब पहले खुद को सीखनी चाहिए फिर दूसरों से उम्मीद करनी चाहिए. आपने इस लघुकथा में अन्य दो बातों को भी कैच कर लिया ध्वनि प्रदूषण और अन्न का अपव्यय. तहज़ीब ही हमारी भारतीय सभ्यता और संस्कृति की विशेषता है जिसे हम भुलाते जा रहे हैं. अब भी समय है जागने का, सभ्यता पर पड़ी धूल को हटाने का.

  • लीला तिवानी

    प्रिय ब्लॉगर सुदर्शन भाई जी, बहुत सुंदर संदेश देती हुई लघुकथा के लिए बधाई. तहज़ीब पहले खुद को स्ख्हानी चाहिए, फिर औरों से उम्मीद करनी चाहिए, अन्यथा शर्मसार ही होना पड़ेगा. शुक्र है कुता शर्मसार तो हो रहा है, मालिक तो तहज़ीएब की तरफ से निश्चिंत-निर्लिप्त चलता ही जा रहा है. एक ही कथा में तहज़ीब के साथ ध्वनि-प्रदूषण और अन्न के अपव्यय को रोकने सहित अनेक संदेश आपने दे दिए हैं. अत्यंत सुंदर, सटीक व सार्थक कल्पनातीत रचना के लिए बधाई-बधाई-बधाई.

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