तपते दोहे
विगत माह भी गर्म था, पर दुगना है जून।
दिल्ली,बम्बई,आगरा,तपता दहरादून।।
मौसम आतिश बन गया,जले नगर औ” गांव !
जीव सभी अकुला उठे,ढूंढ रहे हैैं छांव !!
जीव सभी अकुला उठे,ढूंढ रहे हैैं छांव !!
गर्मी का आक्रोश है,बिलख रहे तालाब !
कुंओं,नदी ने भी ‘शरद’,खो दी अपनी आब !!
कर्फ्यू सड़कों पर लगा,आतंकित हर एक !
सूरज के तो आजकल,नहीं इरादे नेक !!
कूलर,पंखे हँस रहे,ए.सी.का है मान !
शीतलता ने तो “शरद’,पाई नूतन शान !!
कोल्ड ड्रिंक भाने लगे,कुल्फी पर है गौर ।
शरबत-लस्सी पुज रहे, यह फ्रिज का है दौर !!
किरणें ना किरणें लगें,बरस रही है आग !
बचना यदि चाहो ‘शरद’, तो लो बचकर भाग !!
बचना यदि चाहो ‘शरद’, तो लो बचकर भाग !!
कम्बल अब बेकार हैं,बिरथा ऊनी वस्त्र !
गरमी हमले कर रही,बनकर तीखे शस्त्र !!
पानी जैसा बह रहा,तन से अविरल स्वेद !
इस मौसम में हो रहा,हर इक जन को खेद !!
— प्रो. शरद नारायण खरे