गज़ल
बिजली की तार पे बैठा अकेला पंछि,
सोचता है कि वो जंगल से पराया होगा.
शोर यूँ ही तो न दरिंदों ने मचाया होगा
कोई खुद सा महफूज़ शहर में आया होगा.
शज़र बिन देखा कहाँ बैठे सोचा होगा
बदन जल जायेंगे पर हासिल न छाया होगा.
होड़ लकड़ी लपक गिरोह लुभाया होगा
होश कमाई तलव आरा चलाया होगा.
मानिए ज़श्ने बहारा सोचा भी नही था
जान जोखम हो आंधी से बचाया होगा.
जख्म “रेखा” ले घबराके उडे थे प्यासे
बन सराब उन्हें समुन्द्र नज़र आया होगा.
— रेखा मोहन