गीत “जालजगत की शाला है”
जीवन में अँधियारा, लेकिन सपनों में उजियाला है।
आभासी दुनिया में होता, मन कितना मतवाला है।।
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चहक-महक होती बसन्त सी, नहीं दिखाई देती है,
आहट नहीं मगर फिर भी, पदचाप सुनाई देती है,
वीरानी बगिया को जो, पल-पल अमराई देती है,
शिथिल अंग में यौवन की, आभा अँगड़ाई लेती है,
कभी नहीं मुरझाती, सुमनों की ये मंजुल-माला है।
आभासी दुनिया में होता मन कितना मतवाला है।।
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मौसम चाहे कोई भी तो, पलता है मधुमास सदा,
स्वप्न दिखाती स्वर्गलोक के, आकर परियाँ यदा-कदा,
आभासी दुनिया की होती, बहुत निराली प्रियंवदा,
यहाँ दिखाई देती सबको, धरा-गगन की अलग अदा,
पाठ पढ़ाती बिना दाम के, जालजगत की शाला है।
आभासी दुनिया में होता, मन कितना मतवाला है।।
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जैसी जिसकी रुचियाँ होतीं, वैसा इसमें माल भरा,
बंजर नहीं कभी होती है, चन्दनवन की वसुन्धरा,
सपनों की आजादी पर, कैसे सैनिक कैसा पहरा,
पठन-मनन का इस बगिया से, होता है नाता गहरा,
माया नगरी के महलों में, रहता सदा उजाला है।
आभासी दुनिया में होता, मन कितना मतवाला है।।
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भाँति-भाँति के रंग उभरते, पल-पल जिसके आँचल पर,
दृष्टि हमेशा जिसकी रहती, विश्वपटल की हलचल पर,
जहाँ निरन्तर बहती रहती, गंगा-यमुना है भूतल पर,
रत्नों का भण्डार खोज लो, जा करके सागर-तल पर,
अमल-धवल ये लोक अनोखा, लगता भोला-भाला है।
आभासी दुनिया में होता, मन कितना मतवाला है।।
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(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)