होली के बहाने!
पता नहीं किसने उसका नाम रंगबिरंगी रख दिया था! उसके नामकरण की जिम्मेदारी भी कोई नहीं ले रहा था. लेता भी कैसे! उसके जीवन में काले के सिवाय कोई और रंग किसी ने देखा भी तो नहीं था न!
”कैसी रंगबिरंगी?” वह खुद से कहती.
सबसे पहला रंग मां का होता है, पर मां का रंग तो उसे देखने को ही नहीं मिला. नवजात शिशु के जीवंत होने के प्रमाणस्वरूप उसका रुदन निकले, उसके पहले मां के साथ आए हुए लोग मां के बेजान शरीर से लिपट-लिपटकर रोने लगे थे. उसके रोने की किसी ने खुशी नहीं मनाई. जन्मते ही मां को खा जाने वाली और नाम रंगबिरंगी!
दूसरा रंग पिता की गोद का होता है. पिता की गोद उसे कभी नसीब ही नहीं हुई, मनहूस जो थी वह!
तीसरा रंग मां-जाए भाई-बहिन का होता है. वह तो पहलौठी की संतान थी!
चौथा रंग पड़ोसियों का होता है. जिसको अपनों का रंग न लगे, उसको पड़ोसी कैसे रंग सकते हैं भला!
जगत-नियंता सबके लिए कुछ-न-कुछ जुगाड़ रखता है. जैसे-तैसे वह बड़ी हो गई थी. कमाने भी लगी थी. पति भी मिला, पर पति का रंग भी नहीं चढ़ पाया. शादी के नाम पर जो कुछ हुआ, सो तो हुआ ही, सुहागरात मनाने से पहले ही दंगे शुरु हो गए. दंगों ने पति की बलि लेने में कोई देर नहीं लगाई थी.
अब भी सब उसे रंगबिरंगी ही बुलाते हैं. काले पर कोई और रंग चढ़ता भी तो कैसे! सब कुछ काला सही पर नाम की तो रंगबिरंगी था और मुस्कुराना उसकी आदत या कि कहिए जीने का बहाना!
”शायद होली के बहाने किस्मत उसे रंगबिरंगा कुछ दिखा दे!” सोचकर वह मुस्कुरा दी.
हाल कैसा भी हो, बदलनी की आस बनी रहती है, भले ही होली के बहाने से ही क्यों न हो!