धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

यम लोक में बैठा चित्रगुप्त कौन है ?

हम में बहुत ने यह पढ़ा और सुना है कि यम लोक में चित्रगुप्त रहता है। वह जितने भी प्राणी हैं उनके अच्छे बुरे कर्मो का हिसाब एक बहीखाते में रखता है। जब किसी भी प्राणी की मृत्यु हो जाती है तो उसकी आत्मा यम लोक में जाती है। चित्रगुप्त उसका बहीखाता पढ़कर सुनाता है और उसके अगले जीवन का निर्णय उसी बहीखाते के आधार पर लिया जाता है और उसके अनुसार ही प्राणी को इस लोक में फिर से भेज दिया जाता है।
मेरे लिए तो जो कि आर्य समाजी विचारधारा से है यह एक मनघड़ंत बात है। कौन अरबों खरबों लोगों का हिसाब एक वही खाते में रख सकता है। यद्यपि यह एक पौराणिक बात है और मेरा मानना है कि हर एक पौराणिक बात या कहानी मनघड़ंत तो होती है परन्तु उस कि तह पर कुछ भाव भी छिपा होता है जो कि विचारशील व्यक्ति ही ढूंढ सकता है। आम व्यक्ति कहानी का आन्नद उठाता है और विचारशील व्यक्ति उसके भाव को देखता है। यहां भी अवश्य एक भाव है, यह अवश्य नहीं जो मैने अपनी योग्यता से ढूंढा वह ठीक ही हो, आप अपनी तह पर सोचने में स्वतन्त्र है और यदि मतभेद हो तो लिखें।
हम सबके पास दस इंन्द्रियों हैं जिनमें पांच कर्मेन्द्रियाँ हैं और पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इन्हीं दस इन्द्रियों द्वारा जो कुछ भी हम बाहरी संसार और वातावरण में देखते है उन को छानकर ग्रहण करते हैं। इस छलनी का काम करते हंै – हमारा मन और विवेक। इन दोनों में विवेक का मुख्य काम होता है और नीचे की सतह पर मन काम करता है। इसके बाद चित्त है जहां जो भी हमने किया होता है या देखा होता है उसका चित्र छप जाता है। या यूं कहे कि चित्त हमारे द्वारा किये कार्य की एक याददाश्त को स्टोर कर रखने वाली फ्लोपी है तो गलत नहीं होगा। यही कारण है कि दो मनुष्य एक ही अनुभव के बाद जो कुछ भी ग्रहण करते हैं वह एक जैसा नहीं होता। यह इन दस इन्द्रियों और उनकेे विवेक व मन पर ही निर्भर करता है। उदाहरण के लिए जब गणेश की मूर्ति द्वारा दूध पीने की बात फैली तो कुछ ने स्वीकार किया कुछ ने नहीं। फर्क था दस इन्द्रियों और विवेक के कार्य का। कुछ ने कहा यह असम्भव है बहुतों ने कहा यह सत्य है।
जो हमारे चित्त में होता है वह दूसरों को पता नहीं होता यहां तक कि पति के चित्त का पत्नी को और पत्नी के चित्त का पति को पता नहीं होता जब तक कि वे दोनों एक दूसरे को ईमानदारी से न बतायें। एक बात स्पष्ट हो गई कि सब अनुभवों का चित्त में चित्र बनता है जो कि गुप्त रहता है। इसी से चित्रगुप्त बना है। चित्रगुप्त कोई मुनीम नहीं परन्तु आप के चित्त में आप द्वारा किये गये कामों के चित्र ही हैं, जो कि आप तक ही सीमित रहते हंै यानी कि गुप्त रहते हैं। इसीलिए चित्रगुप्त कहा गया है।
मृत्यु क्या है ? मेरे अनुसार इस शरीर को चलाने वाले साधनों की कार्य क्षमता खत्म हो जाना। उदाहरण के लिए वायु, जल व खाद्यान्न सभी भरपूर हैं परन्तु जो शरीर को चलाने वाले साधन हैं उनकी क्षमता खत्म है। दो तरह मृत्यु होती है- एक प्राकृतिक ढंग से, दूसरा अप्राकृतिक ढंग से जैसे किसी दुर्घटना का शिकार हो जाना। जब मनुष्य प्राकृतिक ढंग से मरता है तो आहिस्ता आहिस्ता उसे अपनी मृत्यु का ऐहसास होने लगता है। इस दौरान ऐसी स्थिति आती है कि उसके चित्त पर अंंिकत चित्र उसके सामने घूमने लगते हैं, यह वह समय होता है कि उसके पाप और पुण्य दोनों उसके सामने घूमते हैं। यदि पाप किये हों तो पश्चाताप भी होता है, उदाहरण के लिए यदि उसने कोई कत्ल किया हो, चाहे अदालत से वह बरी हो गया हो परन्तु वह बात व उसका पश्चाताप उसके चित्त पर अंकित होता है व यही चित्रगुप्त उसके अगले जीवन का निर्णय उसको बता देता है। यही बात उसके अच्छे कर्मों की है। वह उसे आनन्द की अनुभूति करवाते हैं और यही आनन्द उसके अगले जीवन के बारे में निर्णायक होता है।
एक व्यक्ति ने किसी महात्मा से पूछा कि आप बहुत पहुंचे हुए हैं, क्या आप अपने पिछले और अगले जीवन के बारे में कुछ बता सकते हैं। महात्मा ने कहा मेरा पिछला जीवन अवश्य अच्छा होगा तभी तो यह मानव का चोला मिला और मेरे अनुसार अगला जीवन भी अच्छा ही होना क्योंकि मैं इस जीवन में भी पाप से दूर ही रहा हूं। कहने का अर्थ यह है कि चित्रगुप्त कोई यमलोक में रहने वाला मुनीम नहीं बल्कि आपके अपने चित्त पर ही आपके द्वारा किये गये कर्मो का चित्रण है।
— भारतेन्दु सूद

भारतेंदु सूद

आर्यसमाज की विधारधारा से प्रेरित हैं। लिखने-पढ़ने का शौक है। सम्पादक, वैदिक थाट्स, चण्डीगढ़