क्यों मन धधके बन कर गोला
फुफकारे क्यों फूल चमन का,
क्योंतृण-तृण सह पत्ता डोला?
स्थिर सिंधु में हलचल क्यों है,
क्यों मन धधके बन कर गोला?
वैचारिक वेदी पर क्यों अब,
गह शस्त्र विचार खड़ें हैं।
लांछन का हथियार सँभाले,
करने को हर वार खड़ें हैं।
बस्ती-बस्ती विवश दहकती,
मानवता का जलता होला।
यौवन का मन भूल प्रेम को,
नफ़रत करने को आमादा
कसम प्रेम की कुंठित लगती,
मुखरित हर हिंसा का वादा
किसने रोपी फसल भयानक,
जिससे मन बनता हिंडोला।
तन-मन, घर सब ईंधन समझे,
मन जिसका है चूल्हा भारी
इस ईंधन को आग लगाकर,
बनती रोटी औ तरकारी
हर तीली को फूँक-फूँक कर,
उसकी सोच बनाती शोला।
गुलशन की रौनक सब से है,
सब से इसका महके आँगन
सब सोंचें अच्छा सबके हित,
सबमें झलके बस अपनापन
प्रतिक्रिया सही तब कहलायी,
सही क्रिया को जब-जब तोला।
©सतविन्द्र कुमार राणा