गीत/नवगीत

“गोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे”

महक लुटाते कानन पावन नहीं रहे
गोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे

आज आदमी में मानवता सुप्त हुई
गौशालाएँ भी नगरों से लुप्त हुई
दाग लगे हैं आज चमन के दामन में
वैद्यराज सा नीम नहीं है आँगन में
ताल और लय मनभावन नहीं रहे
गोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे

यौवन आने से पहले सूखी डाली
लुटी-पिटी सी है पेड़ों की हरियाली
कौन करेगा आज चमन की रखवाली
बने हुए खुदगर्ज आज वन के माली
कृष्णचन्द्र के अब वृन्दावन नहीं रहे
गोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे

इन्द्रधनुष ने रंग बदलने छोड़ दिये
इतिहासों के पृष्ठ पलटने छोड़ दिये
रीत-रिवाज पुराने हमने छोड़ दिये
भारतीय परिधान पहनने छोड़ दिये
रिमझिम वाले भादो-सावन नहीं रहे
गोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे

शिक्षा का अब है अकाल विद्यालय में
मस्त हो रही नई पौध मदिरालय में
दादा-दादी पड़े हुए वृद्धालय में
घर के मसले तय होते न्यायालय में
देवतुल्य पर्वत के पाहन नहीं रहे
गोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे

(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

*डॉ. रूपचन्द शास्त्री 'मयंक'

एम.ए.(हिन्दी-संस्कृत)। सदस्य - अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग,उत्तराखंड सरकार, सन् 2005 से 2008 तक। सन् 1996 से 2004 तक लगातार उच्चारण पत्रिका का सम्पादन। 2011 में "सुख का सूरज", "धरा के रंग", "हँसता गाता बचपन" और "नन्हें सुमन" के नाम से मेरी चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। "सम्मान" पाने का तो सौभाग्य ही नहीं मिला। क्योंकि अब तक दूसरों को ही सम्मानित करने में संलग्न हूँ। सम्प्रति इस वर्ष मुझे हिन्दी साहित्य निकेतन परिकल्पना के द्वारा 2010 के श्रेष्ठ उत्सवी गीतकार के रूप में हिन्दी दिवस नई दिल्ली में उत्तराखण्ड के माननीय मुख्यमन्त्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा सम्मानित किया गया है▬ सम्प्रति-अप्रैल 2016 में मेरी दोहावली की दो पुस्तकें "खिली रूप की धूप" और "कदम-कदम पर घास" भी प्रकाशित हुई हैं। -- मेरे बारे में अधिक जानकारी इस लिंक पर भी उपलब्ध है- http://taau.taau.in/2009/06/blog-post_04.html प्रति वर्ष 4 फरवरी को मेरा जन्म-दिन आता है