पर्यावरण

मानव अपनी हद में रहकर ही विकास करे – प्रकृति

आज कुछ-एक शातिर मानव समूहों ने जीन इंजीनियरिंग में अत्याधुनिक तकनीक से एक साधारण से रोग के जीवाणु के जीनोम में हेर-फेर करके, उसे इतना खतरनाक बना दिया कि कई आधुनिकतम् परमाण्विक हथियारों से लैस महाशक्तियों को भी इस अतिसूक्ष्म परन्तु अभी तक अपराजेय कोरोना वायरस नामक विषाणु ने घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया है ! परमाण्विक हथियारों के बल पर, हिरोशिमा और नागासाकी में लाखों निरपराध मानवों को राख के ढेर में बदलने की वीभत्सता को भी इन माइक्रोस्कोपिक विषाणुओं ने अपनी भयंकरतम् दहशत से तुलनात्मक रूप से कमतर आंकने को मजब़ूर कर दिया है।
परन्तु हर पहलू के दो पक्ष होते हैं। कहा जाता है, कि बुरे से बुरे आदमी में भी और भयंकरतम् बुरी घटना में भी कुछ अच्छाइयाँ और कुछ अच्छे संदेश छिपे होते हैं, मसलन समस्त मानवप्रजाति के विरूद्ध वैश्विकस्तर पर कोरोना वायरस के इस दारुण और दिल दहला देने वाली इस दुःस्वप्निल घटना के होने के बाद भी कुछ अच्छी खबरें छनकर आ रहीं हैं, उदाहरणार्थ आज के कुछ अख़बारों में इस पृथ्वी, इसके पर्यावरण, इसके वन्य जीव-जन्तुओं के बारे में ऐसी सुखद व मंद, स्निग्ध और शीतल ताजा हवा के झोंकों जैसी कुछ खबरें प्रकाशित हुईं हैं, जिन पर बरबस मानव मन विश्वास नहीं कर पा रहा है यथा विश्वस्तर पर लॉकडाउन होने से मानव गतिविधियों के कम हो जाने, कल-कारखानों, फैक्ट्रियों द्वारा फिलहाल करोड़ों-अरबों टन कार्बनडाइऑक्साइड न छोड़ने, लाखों क्यूसेक विषाक्त, रसायनयुक्त, प्रदूषित जल नदियों में न छोड़ने आदि-आदि से आकाश इतना शुभ्र नीला और प्रदूषणरहित हो गया है कि महानगरों से भी रात में तारे दिखाई देने लगे हैं, यमुना जैसी नाले में तब्दील नदियों का पानी भी एकदम स्वच्छ होकर अपने स्वाभाविक नीले रंग में दिखने लगा है, वन्य जीव जैसे हिरन, लोमड़ी, तेंदुए, हाथी आदि भी अपने वन्य अभ्यारण्यों की सीमा की कैद से बाहर निकलकर मानव चहलपहल के स्थानों पर स्वाभाविक रूप से चहलकदमी करने लगे हैं। पहले दूरस्थ मैदानी इलाकों से दूरबीन से भी न दिखनेवाले हिमालय के उच्च शिखरों की शुभ्र, धवल आच्छादित बर्फ की चोटियां नहीं दिखतीं थीं, वे अब नंगी आँखों से ही, स्वाभाविक तौर पर दिखाई देने लगीं हैं !
कितना सुन्दर, नयनाभिराम, अभिनव नजारा पैदा हो रहा है ! मानो प्रकृति हमें संदेश दे रही है कि हे मानवों !अभी भी सुधर जाओ, अपनी एक ह़द में रहकर अपने विकास की एक सीमारेखा निर्धारित कर, एक संतुलन में रहकर अपना विकास करो, तो हम इस पृथ्वी, पर्यावरण, प्रकृति पर्वत, नदियों, समुद्रों, अनन्त विस्तारित स्तेपियों, इस पर विचरित करते लाखों जीव-जंतुओं, तितलियों, भौंरों, पुष्पों, रंगविरंगी, मन्त्रमुग्ध कर देने वाली संगीत गाने वाली लाखों पक्षियों आदि को हम पुराने दौर में लौटाने में, अभी भी सक्षम हैं।
क्या हम मदांध, मूर्ख मानव, प्रकृति के इस स्पष्ट संदेश को समझ पाएंगे ?हमें अपने भविष्य और भावी पीढ़ियों की खातिर प्रकृति के इस स्पष्ट संकेत को समझना ही होगा, इसके अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं है, अन्यथा भारतीय जनमानस में प्रचलित मूर्ख कालिदास के उस प्रकरण को हमें ठीक से याद रखना होगा, जिसमें कालीदास जिस डाली पर बैठे थे उसी को काट रहे थे। आशा की जानी चाहिए कि कथित उच्च मस्तिष्क और बुद्धि से सम्पन्न मानवप्रजाति प्रकृति रूपी पालनहार डाल को, जिसपर समस्त मानवप्रजाति आश्रित है, को अब और अधिक क्षति न पहुँचाए।

— निर्मल कुमार शर्मा

*निर्मल कुमार शर्मा

"गौरैया संरक्षण" ,"पर्यावरण संरक्षण ", "गरीब बच्चों के स्कू्ल में निःशुल्क शिक्षण" ,"वृक्षारोपण" ,"छत पर बागवानी", " समाचार पत्रों एवंम् पत्रिकाओं में ,स्वतंत्र लेखन" , "पर्यावरण पर नाट्य लेखन,निर्देशन एवम् उनका मंचन " जी-181-ए , एच.आई.जी.फ्लैट्स, डबल स्टोरी , सेक्टर-11, प्रताप विहार , गाजियाबाद , (उ0 प्र0) पिन नं 201009 मोबाईल नम्बर 9910629632 ई मेल [email protected]