ग़ज़ल
आशिक़ी हूं मैं किसी और की कह गई
छत से पहले ही दीवार ढह गई
जब से सुलझाया उसके गेसुओं को
ज़िंदगी मेरी उलझ कर रह गई
जो रहती नहीं थी कभी मेरे बग़ैर
वो किसी और का बन कर रह गई
बसाया था जिसे मैंने अपनी आंखों में
वो बेवफा आंसुओं के संग बह गई
जो भी आया सिर्फ़ दर्द ही देकर गया
मेरी ज़िंदगी भी हर दर्द सह गई
✍️ आलोक कौशिक