परायी गली
घर आंगन था जो गली कभी
रहती थी नन्हीं सी एक दोस्त
होता था रंग-बिरंगे खेलों का जमघट जहां
कौन लड़का कौन लड़की पता नहीं
नहीं था ज्ञान लिंग भेद का जरा
वही गली अब पराया लगने लगा
दोषी बन बैठा हम सब का यौवन
नन्हीं गुड़िया अब सयानी हो गई
मैं भी यौवन के दहलीज पर आया
खेल-खेल में पनपा कब प्यार
दोनों ही अनजान रहे,पर
लोगों की आंखों ने ताड़ लिया
पाबंदी लगाई गई मुझ पर
गली में चक्कर लगाता जब भी
तीर की तरह लोगों की आंखें मुझ
पर होती,लुटेरा हूं मैं जैसे
आवारा,मनचला पागल हूं
दिल ही दिल में में मैं रोता
बिछड़ गयी मेरी प्यारी दोस्त
गली भी जुदा वह भी जुदा
ख़ामोश वह ,ख़ामोश मैं
दूर-दूर रह कर भी हम एक रहे।
— मंजु लता