कविता

परायी गली

घर आंगन था जो गली कभी
रहती थी नन्हीं सी एक दोस्त
होता था रंग-बिरंगे खेलों का जमघट जहां
कौन लड़का कौन लड़की पता नहीं
नहीं था ज्ञान लिंग भेद का जरा
वही गली अब पराया लगने लगा
दोषी बन बैठा हम सब का यौवन
नन्हीं गुड़िया अब सयानी हो गई
मैं भी यौवन के दहलीज पर आया
खेल-खेल में पनपा कब प्यार
दोनों ही अनजान रहे,पर
लोगों की आंखों ने ताड़ लिया
पाबंदी लगाई गई मुझ पर
गली में चक्कर लगाता जब भी
तीर की तरह लोगों की आंखें मुझ
पर होती,लुटेरा हूं मैं जैसे
आवारा,मनचला पागल हूं
दिल ही दिल में में मैं रोता
बिछड़ गयी मेरी प्यारी दोस्त
गली भी जुदा वह भी जुदा
ख़ामोश वह ,ख़ामोश मैं
दूर-दूर रह कर भी हम एक रहे।

— मंजु लता

डॉ. मंजु लता Noida

मैं इलाहाबाद में रहती हूं।मेरी शिक्षा पटना विश्वविद्यालय से तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई है। इतिहास, समाजशास्त्र,एवं शिक्षा शास्त्र में परास्नातक और शिक्षा शास्त्र में डाक्ट्रेट भी किया है।कुछ वर्षों तक डिग्री कालेजों में अध्यापन भी किया। साहित्य में रूचि हमेशा से रही है। प्रारम्भिक वर्षों में काशवाणी,पटना से कहानी बोला करती थी ।छिट फुट, यदा कदा मैगज़ीन में कहानी प्रकाशित होती रही। काफी समय गुजर गया।बीच में लेखन कार्य अवरूद्ध रहा।इन दिनों मैं विभिन्न सामाजिक- साहित्यिक समूहों से जुड़ी हूं। मनरभ एन.जी.ओ. इलाहाबाद की अध्यक्षा हूं। मालवीय रोड, जार्ज टाऊन प्रयागराज आजकल नोयडा में रहती हैं।