ग़ज़ल
रात ,आंखो से नींद जाती रही
टुकड़े हुए सपनों को जोड़ती रही
फ़लक पर खामोश था चांद
चांदनी जग रोशन करती रही
मदिर-मदिर समीर बहती रही
रात-रानी खुशबू बिखेरती रही
कहीं विरहिणी सिसकती रही
कहीं दो जिस्म एक होती रही
करवटें बदलते रात गुजरती रही
सूर्य-किरणे आकर पास रूकी रहीं
सपने जोड़ने में पागल बनी रही
हकीक़त से मैं क्यों दूर भागती रही।
सपने कभी अपने होते नहीं
मृगतृष्णा में मैं यूं ही भागती रही
— मंजु लता