अत्याचारी कंश
अहम् वृक्ष का फल रहा, तब भारत आगे ‘महा’ लगा ,
महा शब्द,पर महान अलग ,औ’ मित्र, भाई, अहा ! सगा !
घृण-पापी अत्याचारी कंश, जहां रावण बन बैठा था ,
राम तहाँ कृष्ण बन प्रभाकर, मुक्त हस्त ही ऐंठा था ।
सुदामा ने दीनबंधु बताया, सांदीपनि देकर आशीष ,
खंड – द्वय जरासंध, शिशु-द्रथ, द्रोण-कर्ण देकर शीश।
स्थिर युद्ध में धन-शासन ने, कटु वाक्य-व्यवहार किया,
भीमसेन ने तब अंध-पुत्र औ’ हृदयरोगी का आहार किया।
मिले बधाई और मिठाई, गांडीव और पाञ्चजन्य को,
कृष्ण अकेला मार गिराये, क्या, कौरवों के भारी सैन्य को ।
अंत महाभारत – समर, जीवित शेष , रहने लगे उदास ,
बैकुंठ-शोक पर कृष्ण के , चिंतित रहने लगे पांडव – दास ।
ग्रहण कर भीष्मक-विचार, बन इठलाये गुरु-जगत व्यास ,
करे कौन-से पुण्य कर्म हो, कि सत्य-स्वर्ग की बँधेगी आश।