ज्ञानी शम्बूक
कोई गिनती नहीं,पशु में अश्व की,अश्व असत्य में सत्य है,
सृष्टि काल-ग्रास में, पृथ्वी पर जीवन, सबके सब मर्त्य है ।
रथ में जुते जहाँ अश्व है, कि सारथिहीन मन चंचल है,
राजप्रासाद की बात विदाकर, वन में ग्राम – अंचल है ।
अश्वारोही चमत्कृत, पामर – मन जब वश में हो ,
हस्ती औ’ वनकेशरी – शक्ति, कि अश्व जब वश में हो ।
शांति – अश्म में रस्म देकर, अश्वमन जीता जाता है ,
शान्ति-द्वार से स्वर्गद्वार होकर, हरिद्वार खुल जाता है ।
रूप अश्व है, गंधहीन भी, ज्ञानहीन भी हो सकता है ,
चक्रवर्ती बननेवाले अश्व , दूसरे का उपभोक्ता है ।
मत्स्य, कच्छप, शूकर और पशु-ढंग नरसिंहावतार है ,
पशु है निश्चित ही महान, ज्ञान – रुपी दशावतार है।
विशाल अश्व हूँह ! अश्व – पीठ पर चाबुक पड़े ,
वेदाध्ययन करते – करते , कि ज्ञानी शम्बूक मरे ।