कविता

मोबाइल

झांकते रहते हैं  दिन रात लोग इसमें

मोबाइल खिड़की बन गया है…

देखता कोई दूसरों की जिंदगी इसमें

कोई अपनी जिंदगी दिखाता है

तमाशे वाले की फिरकी बन गया है…

सत्य से दूर बस, एक खिड़की का सत्य

छवि इसमें बनाता इसी में दिखाता कृत्य

अस्तित्व मानो खिड़की बन गया है…

होके मजबूर, अपनों से रहते जो दूर

सहारा बन उनका ला देता वो नूर

मन की मिसरी बन गया है…

छूट जाए कुछ भी पर  ये छूटने ना पाए

मिले ना कुछ दाना पानी , बस यह मिल जाए

धड़कन जिगर की बन गया…

🔥Sunita Dwivedi🔥 kanpur

सुनीता द्विवेदी

होम मेकर हूं हिन्दी व आंग्ल विषय में परास्नातक हूं बी.एड हूं कविताएं लिखने का शौक है रहस्यवादी काव्य में दिलचस्पी है मुझे किताबें पढ़ना और घूमने का शौक है पिता का नाम : सुरेश कुमार शुक्ला जिला : कानपुर प्रदेश : उत्तर प्रदेश