अस्थिर अस्तित्व
मस्तिष्क में रोने, बिलखने, सिहरने, चिंघाड़ने और दहाड़ने की आवाज कई दिनों से आ रही थी. कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. अपना संतुलन जवाब दे रहा था. ऐसा था कि मानो कोहराम-सी मच गई थी, मनोमस्तिष्क में ! धाड़-धाड़, साँय-साँय, मार-काट, बम-ब्लास्ट इत्यादि के स्वर यथावत थे. जिंदगी पिरो-सी गई थी माला में– गूँथने के क्रम में. आशा और अपेक्षा एकसाथ आपस में उलझ गया था. सम्पूर्ण अस्तित्व अस्थिर हो चुका था. उलझन और तनाव तो अलग ही हावी थे. सान्निध्य की कसौटी दूर की कौड़ी साबित हो रही थी और मैं और मेरे हालात अदनाई लिए रह गया था. अंतिम असफलता पाकर राजेश हताश थे !