शहरों से अच्छे अपने गांव
जहां आज भी प्यार और रिश्ते जिंदा हैं
लोग एक दूसरे की खुशी में हाथ बंटाते हैं
और दुःख में ही साथ खड़े रहते हैं
शहरों जैसे नहीं साथ या
सामने वाले घर का पता नहीं होता
तो दुःख सुख साथ की तो बात ही क्या
गाँव भी आज भी पूरा गाँव साथ खड़ा हो जाता है
वहां आज भी सादगी, अपनापन बसता है जो शहरों की चकाचौंध में लुप्त हो चुकी है।
धोती, कुर्ता , पाजामा, घाघरा चोली,
सूट अभी भी सादे लिबास हैं उनके
दाल रोटी सब्ज़ी सादा खाना
खेतों की खुली हवा
खुले खुले आँगन
शहरों जैसे डिब्बों जैसे घर
ऊंची ऊंची इमारतों में कैद
पिज़्ज़ा, बर्गर, मोमोज़, नूडल्स
न जाने क्या क्या होता खाने में
पहनावा तो पूछो ही नहीं जी
और ताज़गी के नाम पर सिर्फ प्रदूषण
तभी तो सौ बात की एक बात
शहरों से अच्छे अपने गाँव
हो चाहे बात रिश्तों की या ज़िन्दगी की।।
— मीनाक्षी सुकुमारन