आशा तृष्णा लोभ समान हैं
बांधे भीतर मन जात
दिन प्रतिदिन बढ़ती जाती है
पिस जाए यह गात
मृग तृष्णा सी बन ठगे चातुरी
अदृश्य मन का रोग
मर मिट गए इस के बस पड़े
देव दानव क्या लोग
काम क्रोध लोभ मोह सभी
इस के सुंदर रूप
बाहर से मन लुभावनें
भीतर से हैं कुरूप
छोड़े से भी ना छूटती
तृष्णा बड़ी बलवान
आज तक समझ पाया नहीं
गुणवती मूढ़ इंसान
मन जिसने बस है कर लिया
नित नियम कर ध्यान
तृष्णा से मुक्ति उसे मिले
जिस मन बस जाएं भगवान
— शिव सन्याल