जीवन
जीवन ,नदी की धारा सम।
बढ़ती जाये पल-पल हरदम।।
मिले जो राह में कुछ भी उसे ।
समेटते चलती जाये नहीं कोई ग़म।।
कुछ संकटों से टक्कर लेता।
बढ़ता जाता घबराता कम।।
धारा जैसी हिम्मत है मानव में।
विश्वास रखे जो अपने पर हरदम।।
अपने अनुकुल धारा बदल लें।।
न रहेगा जीवन में कोई ग़म।।
नदी को विस्तार चाहिए है होता।
जा समुद्र में समाहित होकर लेती है दम।।
मानव जीवन की पूर्णता भी तब है
जब अन्त होता निकट प्रभु के कदम।।
भोगता है इंसान पूर्व क़े प्रारब्ध को
नरक को क्या देखना,जो देखा वही है क्या कम
— मंजु लता