भरत मिलाप
लौटकर ननिहाल से
भरत अयोध्या आये,
नगरवासियों की नजरों में
शंका के बादल देख
किसी अनहोनी से बहुत घबड़ाये।
राज महल में पहुंच कर जाना
भैया राम गये हैं वन में
पिताजी स्वर्ग सिधाए।
अपनी माता को फिर
बातें बहुत सुनाये।
राम से मिलने वन जाने की
व्याकुलता दिखलाये।
तीनों माताएं,गुरू और शत्रुघ्न संग
जंगल को निकल पड़े
संग सुमंत और बहुत से वासी
संग संग निकल पड़े।
राह में मिले निषादराज ने
धीरज उन्हें बंधाया,
खुद भी भरत के संग जाकर
राम से उन्हें मिलाया।
लिपटकर रोये दोनों भाई,
मन का उद्ववेग मिटाया,
फिर लक्ष्मण ने भरत के
चरणन शीष नवाया।
शत्रुघ्न को राम ने बहुत दुलराया,
लक्ष्मण शत्रुघ्न दोनों भाई ने
एकदूजे पर प्रेमारस बरसाया।
भरत राम से बोले
भैय्या लौट चलो अब घर को,
राजपाट संभालों अपना
मुक्त रखो मुझको।
राजपाट की नहीं लालसा
मेरे मन में आई,
चलो अयोध्या लौट के अब
मेरे बड़के भाई।
विनती बहुत भरत ने कीन्ही
तब भी राम न माने,
माता ,गुरु, सुमंत सभी को
राम लगे समझाने।
थकहार कर भरत ने
तब चरण पादुका माँगी,
राजपाट तो रहेगा आपका
मैं रहूंगा केवल अनुगामी।
चौदह वर्ष बीतते ही
वापस होना होगा,
वरना अपने भरत की
लाश देखना होगा।
ढांढस बंधा राम ने सबको
वापस भेजा अयोध्या,
राम भरत मिलन की
ऐसी ही है कथा।