कविता

तरू तल में

बैठी हूँ तरू तल में अपनी क्लान्तियों को लिए हुए,
देख रही हूँ चंचल मन तितलियों को लिए हुए,।
झूम रही हैं लताएँ मद मस्त
खिले हुए हैं फूल अपनी मुस्कान लिए हुए,,।।
कितनी क्लान्तियों से भरा है ये मन,
फिर भी आनन्दित हो रहा है, धरा के संग
लताओ से आछादित है ये तरू
हरियाली से भरी है ये जम़ी
कुछ पल शान्त बैठी हूँ,
विडम्बनाओं से भरी हूँ ,,।
इक सकूँन जो मिल रहा है
हे!धरा तेरी गोद में छिपी हुई हूँ,,।।
मन की वेदनाओं से भरी पड़ी हूँ,
अपनी क्लान्तियों को लिए हुए हूँ,।
तरू तल में कुछ पल बैठी हुई हूँ,
चुनौतियों के रास्तों पे निकल पड़ी हूँ,,
कहीं चट्टानें कहीं तरू लताएँ,
कहीं नदियाँ कहीं पहाडिय़ों से घिरी हुई हूँ,,।।
सकूँन का वो समां ढूंढ रही हूँ,
मन ही मन अकेले जी रही हूँ,
मधुवन उपवन महक रहा है,
आसमां में जलद भर रहा है,।
सरोवरों में कमल खिल रहा है,,
ये मन विरह की क्लान्तियों के साथ
वर्षों से जी रहा है,।।
तितलियों की तिलमिलाते हुए सुनहरे पंख
ह्दय को प्रफुल्लित कर रहे हैं,
जैसे रात में तारे चाँद संग चमक रहे हैं,।
इनकी ये पंखों की चंचलता मन को भ्रमित कर रही है,
बैठी हूँ तरू तल में कुछ पल इनकी चंचलता को लिए हुए,
ना जाने कब चलना पड़े अपनी क्लान्तियों को लिए हुए,,।।
जलदों से भी आसमां भरा पड़ा है,
तरू लताओं से भी मधुवन खिला पड़ा है,।
में इन से इक पल की खुशी लिए हुए हूँ,
अपनी वेदना के शहर से कहीं दूर पड़ी हूँ,,
ह्दय से जुड़ी ये प्रकृति का संकेत मिल
रहा है, कुछ पल सकूँन से
तरू लताओं के संग जी ले,
क्लान्तियों से ये जीवन भरा पड़ा है,
मिटा ले कुछ पल क्लान्त अपनी,
ये साँसों की मधुर धुन बता रही है,,।।
ये भवरों की गुनगुनाहट
ये सरसराती हवाओं की सरसराहट
जीवन को जीना सिखा रही है,।
तरू तल का ये अहसास जता रही है,,
रूह को ये आनन्दित पल भा रहा है,
प्रकृति के संग जीना सिखा रहा है,,।।
— सन्तोषी किमोठी वशिष्ठ

सन्तोषी किमोठी वशिष्ठ

स्नातकोत्तर (हिन्दी)