*किसान की समस्याओं को आंदोलन का नाम देना कहांँ तक उचित है एक विचार मंथन के साथ प्रस्तुत यह आलेख
*किसान की समस्याओं को आंदोलन का नाम देना कहांँ तक उचित है एक विचार मंथन के साथ प्रस्तुत यह आलेख*
पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश समेत देश के कई और हिस्सों से आए किसान कृषि से जुड़े तीन क़ानूनों को लेकर दिल्ली की यूपी-हरियाणा से लगती सीमाओं पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.
किसान इन क़ानूनों का विरोध कर रहे हैं. वहीं, इसी बहाने विपक्ष सरकार पर निशाना साध रही है, लेकिन सरकार इन्हें किसानों के हित वाला बता रही है.
पहले समझते हैं कि इन तीनों क़ानूनों में आख़िर क्या है.
१.*कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020*
इसे साधारण भाषा में कहें तो जमाखोरी की अनुमति देने वाला काला कानून*
(यानी अनिवार्य वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन किया गया)
आज का यह कानून अनाज, दालों, आलू, प्याज और खाद्य तिलहन जैसे खाद्य पदार्थों के उत्पादन, आपूर्ति, वितरण को विनियमित करता है. यानी इस तरह के खाद्य पदार्थ आवश्यक वस्तु की सूची से बाहर करने का प्रावधान है. इसके बाद युद्ध व प्राकृतिक आपदा जैसी आपात स्थितियों को छोड़कर भंडारण की कोई सीमा नहीं रह जाएगी.
मेरा कहना हैं कि यह किसानों के लिये ही नही बल्कि आम जन के लिए भी खतरनाक है.
इसे ओर भी ज्यादा साधारण भाषा मे समझे तो इस कानून के लागू होने के बाद कोई भी उद्दोगपति या कोई बड़ी कंपनी सैकड़ो करोड़ रुपए लगाकर देश का सारा अनाज खरीद सकती है और उसे मनचाही कीमत पर देश या विदेश में कही भी बेच सकती है
देश मे किसी भी समय कृतिम अकाल पैदा किया जा सकता है
इसके चलते कृषि उपज जुटाने की कोई सीमा नहीं होगी. उपज जमा करने के लिए निजी निवेश को छूट होगी और सरकार को पता नहीं चलेगा कि किसके पास कितना स्टॉक है और कहां है?
इस क़ानून में एक ऐसा इकोसिस्टम बनाने का प्रावधान है जहां किसानों और व्यापारियों को राज्य की एपीएमसी (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी) की रजिस्टर्ड मंडियों से बाहर फ़सल बेचने की आज़ादी होगी.
इसमें किसानों की फ़सल को एक राज्य से दूसरे राज्य में बिना किसी रोक-टोक के बेचने को बढ़ावा दिया गया है.
बिल में मार्केटिंग और ट्रांस्पोर्टेशन पर ख़र्च कम करने की बात कही गई है ताकि किसानों को अच्छा दाम मिल सके.
इसमें इलेक्ट्रोनिक व्यापार के लिए एक सुविधाजनक ढांचा मुहैया कराने की भी बात कही गई है.
*शासन का तर्क*
राज्य को राजस्व का नुक़सान होगा क्योंकि अगर किसान एपीएमसी मंडियों के बाहर फ़सल बेचेंगे तो वे ‘मंडी फ़ीस’ नहीं वसूल पाएंगे.
कृषि व्यापार अगर मंडियों के बाहर चला गया तो ‘कमिशन एजेंटों’ का क्या होगा?
इसके बाद धीरे-धीरे एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) के ज़रिए फ़सल ख़रीद बंद कर दी जाएगी.
मंडियों में व्यापार बंद होने के बाद मंडी ढांचे के तरह बनी ई-नेम जैसी इलेक्ट्रोनिक व्यापार प्रणाली का आख़िर क्या होगा?
कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर क़रार विधेयक, 2020
इस क़ानून में कृषि क़रारों (कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग) को उल्लिखित किया गया है. इसमें कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिग के लिए एक राष्ट्रीय फ्ऱेमवर्क बनाने का प्रावधान किया गया है.
इस क़ानून के तहत किसान कृषि व्यापार करने वाली फ़र्मों, प्रोसेसर्स, थोक व्यापारी, निर्यातकों या बड़े खुदरा विक्रेताओं के साथ कॉन्ट्रैक्ट करके पहले से तय एक दाम पर भविष्य में अपनी फ़सल बेच सकते हैं.
पांच हेक्टेयर से कम ज़मीन वाले छोटे किसान कॉन्ट्रैक्ट से लाभ कमा पाएंगे.
बाज़ार की अनिश्चितता के ख़तरे को किसान की जगह कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग करवाने वाले प्रायोजकों पर डाला गया है.
अनुबंधित किसानों को गुणवत्ता वाले बीज की आपूर्ति सुनिश्चित करना, तकनीकी सहायता और फ़सल स्वास्थ्य की निगरानी, ऋण की सुविधा और फ़सल बीमा की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी.
इसके तहत किसान मध्यस्थ को दरकिनार कर पूरे दाम के लिए सीधे बाज़ार में जा सकता है.
किसी विवाद की सूरत में एक तय समय में एक तंत्र को स्थापित करने की भी बात कही गई है.
*किसान का तर्क*
कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग के दौरान किसान प्रायोजक से ख़रीद-फ़रोख़्त पर चर्चा करने के मामले में कमज़ोर होगा.
छोटे किसानों की भीड़ होने से शायद प्रायोजक उनसे सौदा करना पसंद न करे.
किसी विवाद की स्थिति में एक बड़ी निजी कंपनी, निर्यातक, थोक व्यापारी या प्रोसेसर जो प्रायोजक होगा उसे बढ़त होगी.
२.*मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा अधिनियम, 2020 पर किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता*
साधारण भाषा में खेती का एग्रीमेंट
किसान की भाषा में बंधुआ किसान कानून
इस कानून का उद्देश्य अनुबंध खेती यानी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की इजाजत देना है*. आप की जमीन को एक निश्चित राशि पर एक पूंजीपति या ठेकेदार किराये पर लेगा और अपने हिसाब से फसल का उत्पादन कर बाजार में बेचेगा
ओर भी साधारण भाषा मे कहा जाए तो उद्दोगपति किसान की जमीन को किराए पर लगा और उसमें जो फसल बो चाहे लगबायेगा तो स्वाभाविक है बो बही फसल लगबायेगा जिसमे उसे ज्यादा लाभ होगा गेहू या मुंगफली तो नही ही लगबायेगा
ओर जब गेहू होगा ही नही तो खायेंगे क्या ओर ये सभी जानते है कि जो चीज कम होती है उसकी कीमत हमेशा बहुत ज्यादा देनी पड़ती है
तो क्या देश 60 या 80 रुपए किलो गेहू लेने की क्षमता रखता
है
उदाहरण के लिए अभी सौर ऊर्जा लाइट के लिए किसानों से एग्रीमेंट किया जा रहा है और फसल की जगह बिजली पैदा की जा रही हो सरकार को मन चाहे दाम में बेची जा रही है
इस क़ानून में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज़ और आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने का प्रावधान है. इसका अर्थ यह हुआ कि सिर्फ़ युद्ध जैसी ‘असाधारण परिस्थितियों’ को छोड़कर अब जितना चाहे इनका भंडारण किया जा सकता है.
इस क़ानून से निजी सेक्टर का कृषि क्षेत्र में डर कम होगा क्योंकि अब तक अत्यधिक क़ानूनी हस्तक्षेप के कारण निजी निवेशक आने से डरते थे.
कृषि इन्फ़्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ेगा, कोल्ड स्टोरेज और फ़ूड स्प्लाई चेन का आधुनिकीकरण होगा.
यह किसी सामान के मूल्य की स्थिरता लाने में किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को मदद करेगा.
प्रतिस्पर्धी बाज़ार का वातावरण बनेगा और किसी फ़सल के नुक़सान में कमी आएगी.
*शासन का तर्क*
‘असाधारण परिस्थितियों’ में क़ीमतों में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा होगा जिसे बाद में नियंत्रित करना मुश्किल होगा.
बड़ी कंपनियों को किसी फ़सल को अधिक भंडार करने की क्षमता होगी. इसका अर्थ यह हुआ कि फिर वे कंपनियां किसानों को दाम तय करने पर मजबूर करेंगी
कृषि मामलों के जानकार देवेंद्र शर्मा के मुताबिक़ किसानों की चिंता जायज़ है. उन्होंने कहा, “किसानों को अगर बाज़ार में अच्छा दाम मिल ही रहा होता तो वो बाहर क्यों जाते.”
उनका कहना है कि जिन उत्पादों पर किसानों को एमएसपी नहीं मिलती, उन्हें वो कम दाम पर बेचने को मजबूर हो जाते हैं.
पंजाब में होने वाले गेहूँ और चावल का सबसे बड़ा हिस्सा या तो पैदा ही एफ़सीआई द्वारा किया जाता है, या फिर एफ़सीआई उसे ख़रीदता है. साल 2019-2020 के दौरान रबी के मार्केटिंग सीज़न में, केंद्र द्वारा ख़रीदे गए क़रीब 341 लाख मिट्रिक टन गेहूँ में से 130 लाख मिट्रिक टन गेहूँ की आपूर्ति पंजाब ने की थी.
किसान भाइयों को यह डर है कि एफ़सीआई अब राज्य की मंडियों से ख़रीद नहीं कर पाएगा, जिससे एजेंटों और आढ़तियों को क़रीब 2.5% के कमीशन का घाटा होगा. साथ ही राज्य भी अपना छह प्रतिशत कमीशन खो देगा, जो वो एजेंसी की ख़रीद पर लगाता आया है.
देवेंद्र कहते हैं कि इसका सबसे बड़ा नुक़सान आने वाले समय में ये होगा कि धीरे-धीरे मंडियां ख़त्म होने लगेंगी.
किसान मानते हैं कि यह क़ानून जो किसानों को अपनी उपज खुले बाज़ार में बेचने की अनुमति देता है, वो क़रीब 20 लाख किसानों, ख़ासकर जाटों के लिए तो एक झटका है ही.
साथ ही मुख्य तौर पर शहरी कमीशन एजेंटों जिनकी संख्या तीस हज़ार बताई जाती है, उनके लिए और क़रीब तीन लाख मंडी मज़दूरों के साथ-साथ क़रीब 30 लाख भूमिहीन खेत मज़दूरों के लिए भी यह बड़ा झटका साबित होगा.
३.किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020,
किसान की भाषा में यह कानून APMC को बाईपास करने का कानून है
यानी कि मंडी तोड़ो, किसानों MSP छोड़ो।
इसका उद्देश्य विभिन्न राज्य विधानसभाओं द्वारा गठित कृषि उपज विपणन समितियों (APMC एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी) द्वारा विनियमित मंडियों के बाहर कृषि उपज की बिक्री की अनुमति देना है.
दो राज्यों के बीच व्यापार को बढ़ावा देने के प्रावधान पर देवेंद्र कहते हैं, “86 प्रतिशत छोटे किसान एक ज़िले से दूसरे ज़िले में नहीं जा पाते, किसी दूसरे राज्य में जाने का सवाल ही नहीं उठता. ये बाज़ार के लिए बना है, किसान के लिए नहीं.”
क़ानून के मुताबिक़ इससे किसान नई तकनीक से जुड़ पाएंगे, पाँच एकड़ से कम ज़मीन वाले किसानों को कॉन्ट्रैक्टर्स से फ़ायदा मिलेगा.
हालांकि देवेंद्र कहते हैं कि इस प्रावधान से किसान “अपनी ही ज़मीन पर मज़दूर हो जाएगा.”
आवश्यक वस्तु संशोधन क़ानून पर देवेंद्र कहते हैं कि इससे कालाबाज़ारी को बढ़ावा मिल सकता है. वो कहते हैं, “हमने जमाख़ोरी को वैधता दे दी है, इन चीज़ों पर अब कंट्रोल नहीं रहेगा.”
*सरकार का क्या है तर्क?*
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे “आज़ादी के बाद किसानों को किसानी में एक नई आज़ादी” देने वाला क़ानून बताया था.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई मौक़ों पर सरकार की स्थिति स्पष्ट करते हुए कह चुके हैं कि राजनीतिक पार्टियां इन क़ानूनों को लेकर दुष्प्रचार कर रही हैं.
वो कहते रहे हैं कि किसानों को एमएसपी का फ़ायदा नहीं मिलने की बात ग़लत है.
बिहार चुनाव के दौरान पीएम मोदी ने कहा था, “जो लोग दशकों तक देश में शासन करते रहें हैं, सत्ता में रहे हैं, देश पर राज किया है, वो लोग किसानों को भ्रमित कर रहे हैं, किसानों से झूठ बोल रह हैं.”
मोदी ने कहा था कि विधेयक में वही चीज़ें हैं जो देश में दशकों तक राज करने वालों ने अपने घोषणापत्र में लिखी थीं. मोदी ने कहा कि यहां “विरोध करने के लिए विरोध” हो रहा है.
उन्होंने कहा बिचौलिए जो किसानों की कमाई का एक बड़ा हिस्सा खा जाते थे, उनसे बचने के लिए ये विधेयक लाना ज़रूरी था.
*सारांश*
पाँचवे दौर की बातचीत बेनतीजा रहने के बाद अब दोनों पक्ष छठे दौर की बातचीत के लिए बुधवार 9 दिसंबर को मुलाक़ात करेंगे
भारत की 2.9 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था में कृषि का हिस्सा लगभग 15 फ़ीसदी है और देश की कुल आबादी एक अरब 30 करोड़ में से आधे लोगों की आजीविका खेती-किसानी से ही चलती है.
हज़ारों की संख्या में प्रदर्शनकारी किसान दिल्ली को पड़ोसी राज्यों से जोड़ने वाली कई सड़कों पर डटे हुए हैं. आज विरोध प्रदर्शन का 11वां दिन.
संयुक्त राष्ट्र महासचिव के प्रवक्ता और ब्रिटेन के 36 सांसदों नें भारत में जारी किसान विरोध को लेकर कर कहा कि किसानों को शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने का हक है.
सामाजिक चिंतन के साथ
सारिका “जागृति” की कलम से
कवियत्री, लेखिका, आलोचक ,समाज सेविका
ग्वालियर (मध्य प्रदेश)