दर्जीगिरी बनाम ब्रांडेड
रेडीमेड और ब्रांडेड कपड़ों के
इस दौर ने
किस तरह
हमारे ट्रेडिशनल बुनकरों,
रंगदारों
और दर्जियों सहित
वस्त्र उद्योग से
जुड़े तमाम परिवारों को
मजूबर
और लाचार बना दिया है,
इसका एहसास होता है।
एक समय था जब
परिवार भर के कपड़े
कोई पारिवारिक दर्जी ही
सिलते थे,
जिसकी सिलाई,
बुनाई सब
एकदम पक्का
और टिकाऊ
काम लिए होता था
और तब कपड़े
लक्ज़री आइटम
नहीं होते थे,
कुछेक खास पर्वो में ही
परिवार भर के कपड़े बनते थे,
बाकी जिसका जन्मदिन हो
उसके लिए
अलग से
कुछ कपड़े आ जाते थे,
पर फिर भी
कपड़े सबके पास
पर्याप्त होते थे,
किन्तु रेडीमेड कपड़ों के
इस दौर ने
कपड़ो को भी
लक्ज़री आइटम
बना दिया है।
आज स्थिति यह है
कि अधिकांश लोग
लगभग हर महीने
या महीने में दो बार
कपड़े खरीदते ही हैं।