स्वप्निल इंटरव्यू
इंटरव्यूकर्ता – जी, आप लेखक हो?
मैं – जी नहीं, मैं लेखक नहीं हूं।
इंटरव्यूकर्ता – लेकिन आप लिखते तो हो!
मैं – हां लिखता तो हूं।
इंटरव्यूकर्ता – तो आप कैसे लेखक नहीं हुए?
मैं – हां मैं वैसे ही लेखक नहीं हुआ।
इंटरव्यूकर्ता – वैसे ही कैसे?
मैं – ऐसे कि, वैसे मैं लिखने के लिए नहीं लिखता।
इंटरव्यूकर्ता – ऐसे कैसे हो सकता है? साहित्य तो लिखने के लिए लिखने से ही बनता है!
मैं – तो मैं साहित्य कहां रच रहा हूं!
इंटरव्यूकर्ता – तो क्या रच रहे हैं आप?
मैं – अरे भाई मैं अपना सुख रच रहा हूँ
इंटरव्यूकर्ता – वह कैसे?
मैं – ऐसे कि लिखने से मुझे सुखनुभूति होती है।
इंटरव्यूकर्ता – ओह! तो आप स्वान्त:सुखाय टाइप के रचनाकार हैं?
मैं – जी आपने सही पकड़ा!
इंटरव्यूकर्ता – फिर तो आप साहित्य के साथ अन्याय कर रहे हैं। ऐसे कि आप केवल अपने लिए लिखते हो और पाठक को उपेक्षित करते हो जबकि लेखक को पाठक की दरकार होती है, इस पर आप क्या कहेंगे?
मैं – वैसे आज पाठक की जरूरत ही कहां है, फेसबुक पर नहीं हैं क्या आप? क्या आप मानते हैं कि जो लिखने के लिए लिख रहे हैं, वे पाठक को दृष्टि में रखकर लिख रहे हैं? बल्कि वे इसलिए लिख रहे हैं कि वे बता सकें कि उन्होंने यह लिखा है या वह लिखा है या फिर वे लेखक हैं, यह बताने के लिए लिखते हैं।
इंटरव्यूकर्ता – आप उल्टा हमसे प्रश्न क्यों कर रहे हैं, इंटरव्यूकर्ता मैं हूं कि आप?
मैं – आप ही हैं, लेकिन क्या आप गारंटी देते हैं कि लिखने के लिए लिखने वाले के पाठक होंगे ही?
इंटरव्यूकर्ता – क्यों नहीं होंगे, जरूर होंगे, अरे जब लिखा जा रहा है तो पढ़ा भी जा रहा होगा.. इसमें गारंटी देने की कौन सी बात है।
मैं – देखिए इंटरव्यूकर्ता महोदय! इसमें होगा..होंगे की बात नहीं है, फुल गारंटी देने की बात है! आप देते हो तो कहो हाँ और नहीं तो कहो नहीं!!
इंटरव्यूकर्ता – देखिए, गारंटी तो किसी बात की नहीं दी जा सकती।
मैं – लेकिन मैं दे सकता हूं! और वह भी डंके की चोट पर!!
इंटरव्यूकर्ता – क्या दे सकते हैं आप???
मैं – यही कि लिखने के लिए लिखने वाले का पाठक हो या न हो, लेकिन स्वान्त:सुखाय के लिए लिखने वाले का पाठक जरूर होता है!!
इंटरव्यूकर्ता – वाह महोदय! अपने मुंह मियां मिट्ठू मत बनिए! और यदि ऐसा है तो वह कैसे?
मैं – अरे महोदय, यह तो स्वत:सिद्ध है कि जब मैं स्वान्त:सुखाय के लिए लिख रहा हूं तो जरूर इस सुख की प्राप्ति के लिए मैं अपनी रचना छपवाता हूं, इस छपे को देखता हूं और इसे पढ़ता भी हूं! इसीलिए पहले ही मैंने कहा दिया है कि मैं अपने लिए सुख रचता हूं, साहित्य नहीं!!
इंटरव्यूकर्ता – अच्छा..इसका तात्पर्य यह है कि आप महान साहित्यकार बनने की दौड़ में शामिल नहीं हैं?
मैं – देखिए! यह दौड़-औड़ की बात मैं नहीं जानता, यह आपका मत हो सकता है मेरा नहीं। कौन महान बनेगा कौन नहीं यह भी भविष्य के गर्त में है।
इंटरव्यूकर्ता – आपके कहने का आशय है कि आप भविष्य में महानता की श्रेणी में जा सकते हैं?
मैं – अरे भाई क्यों नहीं! यदि पत्नी जाने दे!
इंटरव्यूकर्ता – इसमें बीच में पत्नी कहां से आ गई?
मैं – जैसे हुलसी और विद्योतमा आई थी। पत्नियां किसी को भी तुलसी या कालिदास बना सकती हैं।
इंटरव्यूकर्ता – अपने लिए यह संभावना आप कहां तक पाते हो?
मैं – देखिए, स्वान्त:सुखाय टाइप के लेखन में ‘तुलसीत्व’ के प्राप्ति की संभावना छिपी होती है। इस टाइप के लेखन से पत्नी भले चिढ़ती हो लेकिन ऐसे लेखन में महान बनने का भविष्य सुरक्षित है। इस संभावना को बरकरार रखने के लिए ही इस टाइप का मेरा लेखन है।
इंटरव्यूकर्ता – ऐसा लगता है पत्नी की बात करके अपने निजी जीवन पर प्रश्न करने की छूट प्रदान की है, तो क्या मैं आप से पूँछ सकता हूं कि पत्नी से कोई आपका अनबन चल रहा है?
मैं – देखिए! हर पत्नी वाले का पत्नी से अनबन चलता रहता है, क्योंकि बिना उसकी अनुमति के आप एक पत्ता भी नहीं खड़का सकते! अब यही देखिए, पत्नी की उपस्थिति में मैं अपना यह स्वान्त:सुखाय वाला लेखन नहीं कर सकता, उसे देखते ही मैं चुपचाप मोबाइल को परे खिसका देता हूं!
इंटरव्यूकर्ता – अच्छा अन्त में एक प्रश्न और वह यह कि साहित्य में पुरस्कार के बारे में आपकी अवधारणा क्या है?
मैं – देखिए स्वान्त:सुखाय के लेखन में पुरस्कार की अवधारणा फिट नहीं होती.. मैं यहां एक बार फिर कहुंगा कि इसके पीछे ‘तुलसीत्व’ की अवधारणा काम करती है। लेकिन फिर भी मैं आपको विश्वास दिलाता हूं पुरस्कार से सुखानुभूति की आवश्यकता पड़ने पर मंडली में शामिल होने से गुरेज नहीं! आज के जमाने में कहां नहीं सेंधमारी की जा सकती। फिर आजकल तो बड़े-बड़ों को फेसबुक पर गप्पें मारते इठलाते और इसपर मिलते आह या वाह पर मदमाते देखता हूं, यह किसी पुरस्कार से क्या कम है!! तो, फिलहाल मेरा इरादा अभी फेसबुकिया होने पर ही अधिक है।
इंटरव्यूकर्ता – (दर्शकों से) तो जैसा कि अभी आपने देखा और सुना, हम एक ऐसी शख्सियत से रुबरु हुए जो लिखने के लिए नहीं लिखता और न यह बताने के लिए ही लिखता है कि वह लेखक हैं, इसलिए वह अपने को पुरस्कारों की दौड़ में भी नहीं पाता। बल्कि वह इस बात की गारंटी देता है कि उसके लिखे का कोई दूसरा पाठक हो या न हो, लेकिन कम से कम वह स्वयं अपने लिखे का पाठक तो है ही.. जबकि आजकल किसी लेखन का पाठक खोजना कितना मुश्किल भरा काम है!! हम कह सकते हैं, इस शख्सियत में लेखन और पाठन दोनों तत्व मौजूद हैं, कोई विरला ही इनका समकालीन होगा!! इसलिए हम इनकी पत्नी से अपील करते हैं कि ऐसे महान संभावनाओं वाले लेखन को महानता की ओर ले जाने में, उनके साथ यदि हुलसी का नहीं तो कम से कम विद्योतमा वाला व्यवहार जरूर करें और मोबाइल पर लेखन करते समय इन पर व्यंग्योक्तियों का प्रहार न करें, क्योंकि इन महाशय में लेखन और पाठन की अद्भुत संगति है।
इस इंटरव्यू के समाप्त होते ही नींद टूटी। मैं समझ गया कि स्वप्न ने हमें मूर्ख बनाया है। इधर पंखा भी तेजी से गतिमान था, हमें ठंड लगने लगी थी। समय देखने के लिए मोबाइल टटोला तो वह तकिए के नीचे मिला। सुबह हो चुकी थी, फिर भी एक बार और चद्दर तान लिया।
मैं – जी नहीं, मैं लेखक नहीं हूं।
इंटरव्यूकर्ता – लेकिन आप लिखते तो हो!
मैं – हां लिखता तो हूं।
इंटरव्यूकर्ता – तो आप कैसे लेखक नहीं हुए?
मैं – हां मैं वैसे ही लेखक नहीं हुआ।
इंटरव्यूकर्ता – वैसे ही कैसे?
मैं – ऐसे कि, वैसे मैं लिखने के लिए नहीं लिखता।
इंटरव्यूकर्ता – ऐसे कैसे हो सकता है? साहित्य तो लिखने के लिए लिखने से ही बनता है!
मैं – तो मैं साहित्य कहां रच रहा हूं!
इंटरव्यूकर्ता – तो क्या रच रहे हैं आप?
मैं – अरे भाई मैं अपना सुख रच रहा हूँ
इंटरव्यूकर्ता – वह कैसे?
मैं – ऐसे कि लिखने से मुझे सुखनुभूति होती है।
इंटरव्यूकर्ता – ओह! तो आप स्वान्त:सुखाय टाइप के रचनाकार हैं?
मैं – जी आपने सही पकड़ा!
इंटरव्यूकर्ता – फिर तो आप साहित्य के साथ अन्याय कर रहे हैं। ऐसे कि आप केवल अपने लिए लिखते हो और पाठक को उपेक्षित करते हो जबकि लेखक को पाठक की दरकार होती है, इस पर आप क्या कहेंगे?
मैं – वैसे आज पाठक की जरूरत ही कहां है, फेसबुक पर नहीं हैं क्या आप? क्या आप मानते हैं कि जो लिखने के लिए लिख रहे हैं, वे पाठक को दृष्टि में रखकर लिख रहे हैं? बल्कि वे इसलिए लिख रहे हैं कि वे बता सकें कि उन्होंने यह लिखा है या वह लिखा है या फिर वे लेखक हैं, यह बताने के लिए लिखते हैं।
इंटरव्यूकर्ता – आप उल्टा हमसे प्रश्न क्यों कर रहे हैं, इंटरव्यूकर्ता मैं हूं कि आप?
मैं – आप ही हैं, लेकिन क्या आप गारंटी देते हैं कि लिखने के लिए लिखने वाले के पाठक होंगे ही?
इंटरव्यूकर्ता – क्यों नहीं होंगे, जरूर होंगे, अरे जब लिखा जा रहा है तो पढ़ा भी जा रहा होगा.. इसमें गारंटी देने की कौन सी बात है।
मैं – देखिए इंटरव्यूकर्ता महोदय! इसमें होगा..होंगे की बात नहीं है, फुल गारंटी देने की बात है! आप देते हो तो कहो हाँ और नहीं तो कहो नहीं!!
इंटरव्यूकर्ता – देखिए, गारंटी तो किसी बात की नहीं दी जा सकती।
मैं – लेकिन मैं दे सकता हूं! और वह भी डंके की चोट पर!!
इंटरव्यूकर्ता – क्या दे सकते हैं आप???
मैं – यही कि लिखने के लिए लिखने वाले का पाठक हो या न हो, लेकिन स्वान्त:सुखाय के लिए लिखने वाले का पाठक जरूर होता है!!
इंटरव्यूकर्ता – वाह महोदय! अपने मुंह मियां मिट्ठू मत बनिए! और यदि ऐसा है तो वह कैसे?
मैं – अरे महोदय, यह तो स्वत:सिद्ध है कि जब मैं स्वान्त:सुखाय के लिए लिख रहा हूं तो जरूर इस सुख की प्राप्ति के लिए मैं अपनी रचना छपवाता हूं, इस छपे को देखता हूं और इसे पढ़ता भी हूं! इसीलिए पहले ही मैंने कहा दिया है कि मैं अपने लिए सुख रचता हूं, साहित्य नहीं!!
इंटरव्यूकर्ता – अच्छा..इसका तात्पर्य यह है कि आप महान साहित्यकार बनने की दौड़ में शामिल नहीं हैं?
मैं – देखिए! यह दौड़-औड़ की बात मैं नहीं जानता, यह आपका मत हो सकता है मेरा नहीं। कौन महान बनेगा कौन नहीं यह भी भविष्य के गर्त में है।
इंटरव्यूकर्ता – आपके कहने का आशय है कि आप भविष्य में महानता की श्रेणी में जा सकते हैं?
मैं – अरे भाई क्यों नहीं! यदि पत्नी जाने दे!
इंटरव्यूकर्ता – इसमें बीच में पत्नी कहां से आ गई?
मैं – जैसे हुलसी और विद्योतमा आई थी। पत्नियां किसी को भी तुलसी या कालिदास बना सकती हैं।
इंटरव्यूकर्ता – अपने लिए यह संभावना आप कहां तक पाते हो?
मैं – देखिए, स्वान्त:सुखाय टाइप के लेखन में ‘तुलसीत्व’ के प्राप्ति की संभावना छिपी होती है। इस टाइप के लेखन से पत्नी भले चिढ़ती हो लेकिन ऐसे लेखन में महान बनने का भविष्य सुरक्षित है। इस संभावना को बरकरार रखने के लिए ही इस टाइप का मेरा लेखन है।
इंटरव्यूकर्ता – ऐसा लगता है पत्नी की बात करके अपने निजी जीवन पर प्रश्न करने की छूट प्रदान की है, तो क्या मैं आप से पूँछ सकता हूं कि पत्नी से कोई आपका अनबन चल रहा है?
मैं – देखिए! हर पत्नी वाले का पत्नी से अनबन चलता रहता है, क्योंकि बिना उसकी अनुमति के आप एक पत्ता भी नहीं खड़का सकते! अब यही देखिए, पत्नी की उपस्थिति में मैं अपना यह स्वान्त:सुखाय वाला लेखन नहीं कर सकता, उसे देखते ही मैं चुपचाप मोबाइल को परे खिसका देता हूं!
इंटरव्यूकर्ता – अच्छा अन्त में एक प्रश्न और वह यह कि साहित्य में पुरस्कार के बारे में आपकी अवधारणा क्या है?
मैं – देखिए स्वान्त:सुखाय के लेखन में पुरस्कार की अवधारणा फिट नहीं होती.. मैं यहां एक बार फिर कहुंगा कि इसके पीछे ‘तुलसीत्व’ की अवधारणा काम करती है। लेकिन फिर भी मैं आपको विश्वास दिलाता हूं पुरस्कार से सुखानुभूति की आवश्यकता पड़ने पर मंडली में शामिल होने से गुरेज नहीं! आज के जमाने में कहां नहीं सेंधमारी की जा सकती। फिर आजकल तो बड़े-बड़ों को फेसबुक पर गप्पें मारते इठलाते और इसपर मिलते आह या वाह पर मदमाते देखता हूं, यह किसी पुरस्कार से क्या कम है!! तो, फिलहाल मेरा इरादा अभी फेसबुकिया होने पर ही अधिक है।
इंटरव्यूकर्ता – (दर्शकों से) तो जैसा कि अभी आपने देखा और सुना, हम एक ऐसी शख्सियत से रुबरु हुए जो लिखने के लिए नहीं लिखता और न यह बताने के लिए ही लिखता है कि वह लेखक हैं, इसलिए वह अपने को पुरस्कारों की दौड़ में भी नहीं पाता। बल्कि वह इस बात की गारंटी देता है कि उसके लिखे का कोई दूसरा पाठक हो या न हो, लेकिन कम से कम वह स्वयं अपने लिखे का पाठक तो है ही.. जबकि आजकल किसी लेखन का पाठक खोजना कितना मुश्किल भरा काम है!! हम कह सकते हैं, इस शख्सियत में लेखन और पाठन दोनों तत्व मौजूद हैं, कोई विरला ही इनका समकालीन होगा!! इसलिए हम इनकी पत्नी से अपील करते हैं कि ऐसे महान संभावनाओं वाले लेखन को महानता की ओर ले जाने में, उनके साथ यदि हुलसी का नहीं तो कम से कम विद्योतमा वाला व्यवहार जरूर करें और मोबाइल पर लेखन करते समय इन पर व्यंग्योक्तियों का प्रहार न करें, क्योंकि इन महाशय में लेखन और पाठन की अद्भुत संगति है।
इस इंटरव्यू के समाप्त होते ही नींद टूटी। मैं समझ गया कि स्वप्न ने हमें मूर्ख बनाया है। इधर पंखा भी तेजी से गतिमान था, हमें ठंड लगने लगी थी। समय देखने के लिए मोबाइल टटोला तो वह तकिए के नीचे मिला। सुबह हो चुकी थी, फिर भी एक बार और चद्दर तान लिया।