छंदमुक्त कविता
यामिनी की इस प्रहरी में
तुम्हारा अहसास महसूस हो रहा है।
जैसे धीरे- धीरे चाँद ढल रहा है ।।
कुछ मीठा -मीठा दद॔ सता रहा है,।
यादों की गठरी लिए,
मन व्यथित हो रहा है,,।।
व्यथा गाँठ कुछ ऐसी है,।
तुम बहुत दूर हो मेरी इस यात्रा में,
भटक रही हूँ, इस रजनी में,
तुम्हारी शीतलता लिए,
इस चाँदनी में,,
मध्य रात्रि की ये चाँदनी
महज गुनगुना रही तारों
की छाँव में,
थक हार कर बैठी,
तुम्हारे अल्फ़ाजों की खुशबू लिए,
बह रही हूँ मन के भावों में,
कितनी शीतल है,
ये विभावरी अग्रसर हो रही है,,।।,,
भोर की प्रहरी में,
उम्मीद की किरणों को लिए
महसूस कर रही हूँ,
कुछ तो सुद ले लो मेरी,
में मन्द-मन्द गुजर रही हूँ
इस रजनी में,
अन्धेरा फैला हुआ है,
मगर भावों की चाँदनी
बिछी हुई है, ।
आओ खोलूं इन यादों की
गठरी को, महका दो ऊषा
की प्रहरी को,
ये सुनहरी चाँदनी,तुम्हारी
यादों की सरगम है,।।
छेड़ दो संगीत अपने अधरों पर,
ये निशा प्रवर्तित हो रही है, ।
सुना दो राग कोई ऐसा,
ये रूह तुम्हें महसूस कर रही है,,।।,,
— सन्तोषी किमोठी वशिष्ठ